जहाँ सेवा धर्म है, और ‘सीताराम’ ही मूल्य
21 जुलाई 2025 — जंगल की रात और विश्वास की रोशनी
छोटे भाई ने कुछ बंद हो चुके ढाबों पर गाड़ी रोककर पूछा, पर कोई सहारा नहीं मिला। तभी एक वृद्ध ढाबेवाले ने सलाह दी —
“बेटा, आगे ‘शिव ढाबा’ है… वहाँ ज़रूर ठहराव मिलेगा। वो 24 घंटे खुला रहता है।”
यह नाम जैसे अंधेरे में एक दीपक था। कुछ दूर चलते ही, वन क्षेत्र के बीच एक चमकता स्थान मिला —
शिव ढाबा।
भोजन नहीं, श्रद्धा का प्रसाद
लेकिन असली चमत्कार तो इसके बाद शुरू हुआ...
राम नाम की पुस्तक — सेवा का मूल्य नहीं, पुण्य का अवसर
अगले दिन सुबह चाय-नाश्ते के बाद जब प्रस्थान का समय आया, तो मैंने उनसे उनका विज़िटिंग कार्ड चाहा।
तब उन्होंने हमें एक छोटी सी कॉपी दी जिसमें 2000 बार ‘सीताराम’ लिखना था।
“आप जितनी पुस्तकें राम नाम लिखी हुई वापस करेंगे, उतनी बार निःशुल्क भोजन कर सकते हैं — आज, कल, जब चाहें।”
हमने उनसे पूछा —
“अगर कोई रोज़ यहाँ आकर लिखे और भोजन करे तो?”
संचालक जी ने सहज भाव से उत्तर दिया —
“कोई जब तक चाहे तब तक सीताराम-थाली रूपी प्रसाद ले सकता है — सेवा की कोई सीमा नहीं।”उन्होंने हमें कई पुस्तिकाएं भी दीं, ताकि जब भी हम आएं या घर पर समय निकालें, राम नाम में मन लगा सकें।
22 जुलाई 2025 — वापसी पर फिर वही अनुभव
“फिर से शिव ढाबे चलते हैं।”
यह ढाबा दिन-रात, 24 घंटे खुला रहता है, हर मुसाफ़िर की सेवा के लिए हर समय तत्पर।
एक सीख, एक स्मृति, एक प्रेरणा
लोग अक्सर कहते हैं —
“भगवान खुद नहीं आते, पर मदद ज़रूर भेजते हैं।”शिव ढाबा वही मदद था — एक प्रतीक, कि जब रास्ता कठिन हो, जंगल गहरा हो,तो ईश्वर किसी विशाल राजा बुंदेला जी को हमारे लिए खड़ा कर देते हैं।
हमारा प्रण
हम घर लौट आए हैं, लेकिन सीताराम की पुस्तकें हमारे पास हैं।
अब राम नाम लिखते हुए मन हर दिन उसी शिव ढाबा की याद में झूम उठता है।
हमारे लिए यह अनुभव अब केवल याद नहीं, एक आदर्श बन चुका है।
यदि आप कभी छतरपुर की ओर निकलें, तो
“शिव ढाबा” जरूर जाएं —
न केवल भोजन के लिए, बल्कि यह देखने के लिए कि आज भी इस युग में सेवा, श्रद्धा और आत्मीयता जीवित हैं।
सुन्दर
धन्यवाद सर