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‘‘एक ढाबा ऐसा भी...’’

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जहाँ सेवा धर्म है, और ‘सीताराम’ ही मूल्य

यात्रा काल: 20 जुलाई 2025 से 23 जुलाई 2025
मार्ग: पचमढ़ी → बागेश्वर धाम → खजुराहो → छतरपुर→ सागर 
साथी: मामा, भांजे, भांजी और भतीजे की धार्मिक टोली


21 जुलाई 2025 — जंगल की रात और विश्वास की रोशनी

हमारी यह यात्रा केवल एक धार्मिक भ्रमण नहीं थी, यह आत्मा की खोज थी।
उस दिन रात 11 बजे, जब हम छतरपुर से लगभग 22–23 किलोमीटर पहले एनएच-34 पर एक सघन वन क्षेत्र से गुजर रहे थे, तब लगा कि भक्ति की यह यात्रा अब एक परीक्षा में बदल रही है।

रात्रि के तीसरे प्रहर में, अंधेरा सघन और रास्ते अनजान थे। परिवार साथ था, थकावट और भूख भी साथ थी, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न था —
“अब कहाँ रुकें?”

छोटे भाई ने कुछ बंद हो चुके ढाबों पर गाड़ी रोककर पूछा, पर कोई सहारा नहीं मिला। तभी एक वृद्ध ढाबेवाले ने सलाह दी —

“बेटा, आगे ‘शिव ढाबा’ है… वहाँ ज़रूर ठहराव मिलेगा। वो 24 घंटे खुला रहता है।”

यह नाम जैसे अंधेरे में एक दीपक था। कुछ दूर चलते ही, वन क्षेत्र के बीच एक चमकता स्थान मिला —
शिव ढाबा।


भोजन नहीं, श्रद्धा का प्रसाद

हमारे छोटे से निवेदन पर ढाबे के संचालक ने हमें सद्पुरुष जान सहज ही
पहले भोजन, फिर सुरक्षित विश्राम की अनुमति दे दी।
न तो हमने उनसे ढाबे के बारे में जानकारी ली, न ही उन्हे हमसे कोई गहन पूछताछ की आवश्यकता पड़ी।

रात्रि के उस समय में थाली में परोसा गया भोजन जैसे प्रसाद लग रहा था —
गर्म, स्वादिष्ट, पूरी तरह सात्विक, और आत्मीयता से भरा हुआ।

लेकिन असली चमत्कार तो इसके बाद शुरू हुआ...


राम नाम की पुस्तक — सेवा का मूल्य नहीं, पुण्य का अवसर

अगले दिन सुबह चाय-नाश्ते के बाद जब प्रस्थान का समय आया, तो मैंने उनसे उनका विज़िटिंग कार्ड चाहा।
तब उन्होंने हमें एक छोटी सी कॉपी दी जिसमें 2000 बार ‘सीताराम’ लिखना था।

संचालक जी ने मुस्कुराते हुए कहा —

“आप जितनी पुस्तकें राम नाम लिखी हुई वापस करेंगे, उतनी बार निःशुल्क भोजन कर सकते हैं — आज, कल, जब चाहें।”

हम सब इस भाव से अभिभूत हो गए।
हम सक्षम थे, इसलिए हमने भोजन का भुगतान किया, लेकिन ‘सीताराम’ की पुस्तक अवश्य ली।
मन में यह भावना थी कि सेवा का सम्मान भी सेवा है, और राम नाम लेखन एक ऐसा पुण्य कार्य है जो न केवल थाली भरता है, बल्कि आत्मा भी।

हमने उनसे पूछा —
“अगर कोई रोज़ यहाँ आकर लिखे और भोजन करे तो?”
संचालक जी ने सहज भाव से उत्तर दिया —
“कोई जब तक चाहे तब तक सीताराम-थाली रूपी प्रसाद ले सकता है — सेवा की कोई सीमा नहीं।”

उन्होंने हमें कई पुस्तिकाएं भी दीं, ताकि जब भी हम आएं या घर पर समय निकालें, राम नाम में मन लगा सकें।


22 जुलाई 2025 — वापसी पर फिर वही अनुभव

खजुराहो और बागेश्वर धाम की यात्रा पूर्ण कर जब हम वापसी में फिर उसी मार्ग से गुज़रे,
तो बिना किसी योजना के मन ने निर्णय लिया —

“फिर से शिव ढाबे चलते हैं।”

और जैसे समय थम गया हो। वहाँ पहुँचते ही वही स्नेह, वही आत्मीयता, वही सम्मान
एक बार फिर गर्मागर्म भोजन, विश्राम की व्यवस्था, सुबह की चाय और बिस्किट — सब कुछ पूर्ववत।

यह अनुभव हमें यह सिखा गया कि सच्ची सेवा व्यवसाय नहीं होती, वह संस्कार होती है।
शिव ढाबा केवल पेट नहीं भरता — वह संस्कार, श्रद्धा और सुरक्षा देता है।
और सबसे बड़ी बात —

यह ढाबा दिन-रात, 24 घंटे खुला रहता है, हर मुसाफ़िर की सेवा के लिए हर समय तत्पर।


एक सीख, एक स्मृति, एक प्रेरणा

लोग अक्सर कहते हैं —

“भगवान खुद नहीं आते, पर मदद ज़रूर भेजते हैं।”
शिव ढाबा वही मदद था — एक प्रतीक, कि जब रास्ता कठिन हो, जंगल गहरा हो,
तो ईश्वर किसी विशाल राजा बुंदेला जी को हमारे लिए खड़ा कर देते हैं।

यह कोई साधारण ढाबा नहीं था।
यह एक जीवंत तीर्थ है, जहाँ सीताराम लेखन आपकी थाली है, और सेवा ही प्रसाद


हमारा प्रण

हम घर लौट आए हैं, लेकिन सीताराम की पुस्तकें हमारे पास हैं।
अब राम नाम लिखते हुए मन हर दिन उसी शिव ढाबा की याद में झूम उठता है
हमारे लिए यह अनुभव अब केवल याद नहीं, एक आदर्श बन चुका है।

यदि आप कभी छतरपुर की ओर निकलें, तो

“शिव ढाबा” जरूर जाएं —

न केवल भोजन के लिए, बल्कि यह देखने के लिए कि आज भी इस युग में सेवा, श्रद्धा और आत्मीयता जीवित हैं।



- कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता), बैतूल
(21-22 जुलाई 2025 की स्मृतियों के साथ)


2 Responses so far.

  1. कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता) बैतूल says:

    धन्यवाद सर

 
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