‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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हिंदुओं की हिंदुस्तान में ही दुर्दशा: एक गहन विश्लेषण

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"भारत, जिसे हिंदुस्तान के नाम से भी जाना जाता है, विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और विविधता में एकता का प्रतीक है। यहाँ विभिन्न धर्मों, जातियों, और संस्कृतियों का सहअस्तित्व देखने को मिलता है। भारत का इतिहास बताता है कि यह देश सदियों से विभिन्न धार्मिक समूहों का घर रहा है। हिंदू धर्म, जो भारत की आत्मा और प्राचीन सभ्यता का प्रतीक है, का इस भूमि पर गहरा प्रभाव
रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में, हिंदुओं के प्रति असहिष्णुता और उनके हितों की अनदेखी का मुद्दा उठाया जा रहा है। कई लोग मानते हैं कि अपने ही देश में हिंदुओं की दुर्दशा हो रही है। इस लेख में हम इस विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे।"

हिंदुओं की दुर्दशा के प्रमुख कारण:

1. राजनीतिक असंतुलन और तुष्टीकरण की राजनीति:

  • भारत में धार्मिक तुष्टीकरण की राजनीति एक बड़ी चुनौती रही है। कुछ राजनीतिक दल अल्पसंख्यक वोट बैंक के लिए नीतियां बनाते हैं, जिससे हिंदुओं में असुरक्षा की भावना पैदा होती है। इसका उदाहरण कई बार देखा गया है जब सरकारें अल्पसंख्यक समुदायों के हितों के लिए विशेष योजनाएँ और सुविधाएँ लाती हैं, लेकिन हिंदू समुदाय के लिए ऐसा कोई प्रयास नहीं किया जाता।
  • इस प्रकार की राजनीति ने हिंदुओं के बीच यह भावना पैदा कर दी है कि उनकी समस्याओं और मुद्दों की अनदेखी हो रही है। इसने समाज में धार्मिक विभाजन को और गहरा किया है।

2. धार्मिक स्थलों पर हमले और हिंसा:

  • हिंदू मंदिरों पर हमले, तोड़फोड़ और उपद्रव की घटनाएँ अक्सर सामने आती हैं। यह न केवल हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करता है बल्कि उनके मन में असुरक्षा की भावना भी पैदा करता है।
  • मंदिरों के प्रबंधन और संपत्ति को लेकर भी कई विवाद सामने आए हैं। जबकि कई धार्मिक स्थलों का नियंत्रण सरकारी हस्तक्षेप के तहत होता है, इससे यह भावना पैदा होती है कि उनके धार्मिक अधिकारों का सम्मान नहीं किया जा रहा है।

3. धार्मिक स्वतंत्रता पर सवाल:

  • भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किया गया है, लेकिन हिंदुओं को इस स्वतंत्रता का पूरा लाभ उठाने में कठिनाई होती है। कई जगहों पर हिंदुओं की धार्मिक गतिविधियों पर पाबंदियां और परंपराओं का विरोध किया जाता है।
  • कई राज्यों में हिन्दू त्योहारों और परंपराओं पर प्रतिबंध या नियम लगाए जाते हैं, जबकि अन्य धर्मों के लिए विशेष छूट दी जाती है। इससे हिंदुओं में असंतोष का भाव बढ़ता है।

4. संस्कृति और पहचान पर संकट:

  • आधुनिकता की ओर बढ़ते भारत में, हिंदू संस्कृति और परंपराएँ धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही हैं। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय समाज पर गहरा असर डाला है, जिससे पारंपरिक हिंदू मूल्यों और मान्यताओं का क्षरण हो रहा है।
  • शिक्षण संस्थानों और मीडिया में भी हिंदू संस्कृति और इतिहास के बारे में सकारात्मक दृष्टिकोण की कमी दिखाई देती है, जिससे नई पीढ़ी में अपनी जड़ों के प्रति उदासीनता पैदा होती है।

वर्तमान स्थिति का प्रभाव:

  • सामाजिक ध्रुवीकरण: इस असमानता की भावना ने समाज में ध्रुवीकरण बढ़ा दिया है। हिंदू और अन्य समुदायों के बीच आपसी विश्वास की कमी बढ़ रही है।
  • आर्थिक प्रभाव: कुछ योजनाओं और संसाधनों के असमान वितरण के कारण, हिंदू समुदाय के कई लोग आर्थिक रूप से पिछड़ रहे हैं। यह स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, जहाँ विकास योजनाओं का संतुलन प्रभावित होता है।
  • धार्मिक पुनर्जागरण की भावना: हिंदुओं के बीच अपनी संस्कृति और परंपराओं की सुरक्षा के लिए जागरूकता और धार्मिक पुनर्जागरण की भावना बढ़ रही है। कई संगठन और समूह इस दिशा में सक्रिय हैं, जो समाज को अपनी परंपराओं की ओर लौटने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

समाधान की दिशा:

  • समान नागरिक अधिकार और नीति-निर्माण: सरकार को सभी धर्मों के लिए समान अधिकारों की नीति अपनानी चाहिए। तुष्टीकरण की राजनीति से दूर रहकर, सभी समुदायों के हितों की समान रूप से रक्षा की जानी चाहिए।
  • धार्मिक स्थलों की सुरक्षा: हिंदू धार्मिक स्थलों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए सख्त कानूनों का निर्माण किया जाना चाहिए। मंदिरों के प्रबंधन और संपत्ति को सरकार के हस्तक्षेप से मुक्त किया जाना चाहिए।
  • शिक्षा में सुधार: शिक्षा प्रणाली में भारतीय संस्कृति और इतिहास के बारे में सही जानकारी देने की आवश्यकता है। इससे युवाओं में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व और सम्मान की भावना जागृत होगी।
  • धार्मिक एकता का प्रचार: धार्मिक सद्भाव और एकता को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न समुदायों के बीच संवाद और समझदारी को बढ़ावा देना आवश्यक है।

                               हिंदुओं की हिंदुस्तान में दुर्दशा एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा है। इसमें तुष्टीकरण की राजनीति, धार्मिक असहिष्णुता, और सांस्कृतिक संकट का योगदान है। इसके समाधान के लिए संतुलित नीतियों, समाज में आपसी समझदारी, और भारतीय मूल्यों के प्रति सम्मान की भावना की आवश्यकता है। भारत की विविधता और एकता को बनाए रखना ही इसका भविष्य है, और इसके लिए सभी समुदायों को साथ मिलकर काम करना होगा। इससे न केवल हिंदुओं का कल्याण होगा, बल्कि पूरे देश का विकास और स्थिरता सुनिश्चित होगी।

कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता) बैतूल

krishnabaraskar@gmail.com


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''आरएसएस" एक ''गाली" या ''राष्ट्भक्ति" का प्रतीक?

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राजीव खण्डेलवाल:
पिछले कुछ समय से कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं आगामी महत्वपूर्ण होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी दिग्विजय सिंह देश में घटित विभिन्न घटनाओ/दुर्घटनाओ के पीछे वे आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) जिम्मेदार मानने के आदी हो चुके है। विगत पिछले कुछ समय से उन्होने आरएसएस के खिलाफ एक (छिपे हुए एजेंडे के तहत?) मुहिम चला रखी है। एक कहावत है कि किसी भी झूठ को लगातार, दोहराया जाय तो वह सच प्रतीत होने लगती है और लोग भी कुछ समय के उसे सच मानने लगते है। एक बकरे का उदाहरण हमेशा मेरे जेहन में आता है- एक व्यक्ति बकरा लेकर बाजार जा रहा था उसे रास्ते में तीन विभिन्न जगह मिले विभिन्न राहगीरो ने उसे बेवकूफ बनाने के लिए उस बकरे को बार-बार गधा बताया जिस पर बकरा ले जाने वाला व्यक्ति भी उसे गधा मानने लगता है। इसी प्रकार दिग्विजय सिंह के कथन सत्य से परे होने के बावजूद वे लगातार झूठ इसलिए बोल रहे है कि वे भी शायद उपरोक्त सिद्धांत के आधार पर अपने ''छुपे हुए एजेंडे" को 'सफल' करने का 'असफल प्रयास' कर रहे जिस पर देश के जागरूक नागरिको का ध्यान आकर्षित किया जाना आवश्यक है।
वास्तव में आरएसएस एक सांस्कृतिक, वैचारिक संगठन है जिसका एकमात्र सिद्धांत राष्ट्र के प्रति प्रत्येक नागरिक के पूर्ण समर्पण के विचार भाव को मजबूती प्रदान कर राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना है। इसी उद्वेश्य के लिए वह सम्पूर्ण राष्ट्र में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनके व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के लिए लगातार वर्ष भर कार्ययोजना बनाकर हजारो स्वयं सेवको की कड़ी मेहनत से नागरिकों के सक्रिय सहयोग से उसे क्रियान्वित करने का संजीदगी से प्रयास करता है। आरएसएस के सिद्धांतो से आम नागरिको को शायद ही कोई आपत्ती कभी रही हो। लेकिन उनकी कार्यप्रणाली को लेकर व उक्त उद्वेश्यों को प्राप्ति के लिए कार्यक्रमों को लेकर अवश्य कुछ लोगो को भ्रांति है जिन्हे दूर किया जाना आवश्यक है। जब से आरएसएस संघटन बना है तब से तीन बार इस पर कांग्रेस के केंद्रीय शासन ने राजनैतिक कारणों से प्रतिबंध लगाया और कुछ समय बाद उन्हे अंतत: उक्त प्रतिबंध को उठाना पड़ा। आज तक संगठन की हैसियत से आरएसएस पर कोई आरोप किसी भी न्यायालय में न तो लगाये गये और न ही सिद्ध किये गये। व्यक्तिगत हैसियत से यदि कोई अपराध किसी सदस्य या व्यक्ति ने किया है तो इसके लिए वह व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से स्वयं जिम्मेदार है न कि संगठन जैसा कि यह स्थिति अन्य समस्त संगठनों, समाजो के साथ है। आरोप लगाने वाले व्यक्ति के संगठन के साथ भी यही स्थिति है। यह स्पष्ट है कि आरएसएस पर लगाये गये आरोपो के विरूद्ध दिग्विजय सिंह या उनके संगठन या सरकार द्वारा कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं की गई है और न ही कोई जांच आयोग बैठाया गया है। (क्योंकि अपने देश में जॉच आयोग का गठन तो आरोप मात्र पर तुरंत ही हो जाता है) वे मात्र अपनी 'राजनीति' को चमकाने के लिए 'अंक' बढ़ाने के लिए आरएसएस पर आरोपो की बौछार दिग्विजय सिंह लगा रहे है। लेकिन यह उनकी गलतफहमी है कि इससे उनकी राजनीति चमकेगी। लंबे समय तक न झूठ स्वीकार किया जा सकता है और न ही सत्य को अस्वीकार किया जा सकता है। सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक जीने के लिए आवश्यक हर सांस ले रहे है दिग्विजय सिंह कोउसमें आरएसएस के 'कीटाणु' दिख रहे है। लेकिन इससे हटकर जो सबसे दुखद पहलू यह है दिग्विजय सिंह विभिन्न जन आंदोलन को सहयोग देने का आरएसएस पर आरोप लगा रहे है क्या वे वास्तव में आरोप है व वे संगठन खुलकर उक्त आरोपों के प्रतिवाद में क्यों नहीं आ रहे है यह चिंता का विषय है। वास्तव में कोई भी राजनैतिक या गैर राजनैतिक संगठनो पार्टी द्वारा आरएसएस को सहयोग देना या लेना क्या कोई आरोप है क्योंकि आरएसएस कोई अनलॉफुल संगठन नहीं है, न ही उसे कोई न्यायिक प्रक्रिया द्वारा प्रतिबंधित किया गया है। लेकिन मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते खासकर देश के सबसे महत्वपूर्ण और बड़ा राज्य उप्र को देखते हुए मुस्लिम वोट के धु्रवीकरण को देखते हुए कांग्रेस का आरएसएस पर आरोप लगाना एक फैशन हो गया है। इसके विपरीत अनेक राष्ट्र विरोधी संगठन आज भी कश्मीर से लेकर देश के विभिन्न भागो में कार्यरत है। उनके खिलाफ क्या कोई प्रभावशाली आवाज कांग्रेस ने कभी उठाई? कांग्रेस के असम के एक सांसद तो विदेशी नागरिक है व उनकी भारतीय नागरिकता की प्रमाणिकता की जॉच भी चल रही है लेकिन कांग्रेस ने उनके विरूद्ध अभी तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं की। यदि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिनके आंदोलन राष्ट्रीय जन-आंदोलन है जो देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, कालाधन एवं बुराईयों को दूर करने के लिए है ऐसे आंदोलन को यदि संघ का सहयोग प्राप्त है तो कौनसा देशद्रोह का अपराध इसमें अपघटित होता है या भारतीय दंडसंहिता के अंतर्गत क्या अपराध है या कौन सा राजनैतिक अपराध है? यदि नही तो बाबा रामदेव, अन्ना हजारे या श्री श्री रविशंकर जी को आगे आकर स्वयं ही साहसपूर्वक यह तथ्य स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यदि वे किसी अच्छे कार्य में लगे है और चाहते है कि देश का प्रत्येक नागरिक, संगठन, संस्था पार्टी इस कार्य में लगे, सहयोग करे और आरएसएस उक्त आंदोलन में सहायता दे रहा है तो उन्हे सार्वजनिक रूप से उनके सहयोग को स्वीकार करने में आपत्ति या हिचक क्यों होनी चाहिए या फिर वे यह कहे कि आरएसएस एक राष्ट्र विरोधी संगठन है और हमें उनके सहायता की आवश्यकता नहीं है। अन्ना का आज मोहन भागवतजी के बयान के संबंध में दिया गया जवाबी बयान न केवल खेदजनक है बल्कि बेहद स्वार्थपूर्ण है। देश के सैकड़ो संगठनों ने अन्ना के आंदोलन का समर्थन किया लेकिन अन्ना का संघ के बारे में यह बयान कि ''मुझे उनके साथ की जरूरत क्या है" क्या अन्ना भी दिग्विजयसिंह समान संघ के 'अछूते' मानते है स्पष्ट करे। वास्तव में यदि दिग्विजय सिंह के कथन का वास्तविक अर्थ निकाला जाये तो यह बात आईने के समान साफ है कि दिग्विजय सिंह जो कह रहे है जिसे इलेक्ट्रानिक मीडिया आरोपों के रूप में पेश कर रहे है वह वास्तव में आरएसएस की प्रशंसा ही है। अन्ना, बाबा और रविशंकर जी के जनआंदोलन सामाजिक व आध्यात्मिक कार्यो को पूरे देश की जनता ने स्वीकार किया है, राष्ट्रहित में माना है। राष्ट्रउत्थान के लिए माना है इस तरह से दिग्विजय सिंह के आरोपो ने आरएसएस को राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रहित का कार्य करने का प्रमाण पत्र ही दिया है।
आपको कुछ समय पीछे ले जाना चाहता हूं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने काश्मीर विलय के समय व चीन युद्ध में आरएसएस की भागीदारी एवं भूमिंका की प्रशंसा की थी व उन्हे २६ जनवरी की राष्ट्रीय परेड में आमंत्रित किया था। काश्मीर से लेकर देश के किसी भी भाग में आये हुए राष्ट्रीय आपदा, संकट, बाढ़, सूखा में आरएसएस के स्वयं सेवकों की जो निर्माणात्मक व रचनात्मक भूमिका रही है उसे भी कांग्रेस के कई नेताओं सहित देश ने स्वीकारा है। यदि कुछ घटनाओं जैसा कि दिग्विजय सिंह कहते है मालेगांव बमकांड जैसे मे यदि कोई व्यक्ति जो आरएसएस का तथाकथित स्वयं सेवक कभी रहा हो, आरोपित है तो उससे पूरे संगठन को बदनाम करने का अधिकार किसी व्यक्ति को नहीं मिल जाता है। प्रथमत: जो आरोप लगाये गये है वे ही अपने आप में संदिग्ध है। राजनैतिक स्वार्थपूर्ति के तहत कई बार देशप्रेमी सगठन और व्यक्तियों को बदनाम करने की साजिश रची जाती है। यह कहीं भी न तो आरोपित है और न ही सिद्ध किया है कि तथाकथित आरएसएस के व्यक्ति के कृत्य के पीछे आरएसएस की संगठित सोच है, प्लान है जिसके तहत उस व्यक्ति ने संगठन के आदेश को मानते हुए उक्त तथाकथित अपराध घटित किया है। कांग्रेस में कई घोटाले हुए है कामनवेल्थ कांड से लेकर २जी स्पेक्ट्रम कांड के आगे तक सैकड़ों घोटाले आम नागरिकों के दिलो-दिमाग में है। क्या यह मान लिया जाए कि इन घोटालों के पीछे कांग्रेस पार्टी का सामुहिक निर्णय है जिसके पालन में मंत्रियों ने उक्त घोटाले किये? राजनीति में यह नहीं चल सकता कि कडुवा-कड़ुवा थूका जाए और मीठा-मीठा खाया जाए। यदि किसी राजनीति के तहत या राजनैतिक आरोप लगा रहे है तो उससे आप स्वयं भी नहीं बच सकते है और वह सिद्धांत आप पर भी लागू होता है। इसलिए मीडिया का खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया का उत्तरदायित्व बनता है कि वह इस प्रकार के बेतुके तथ्यों को जनता तक परोसने से पहले उसके वैधानिक, संवेधानिक और नैतिक जो दायित्व है उसकी सीमा में ही अपने कार्यक्रम प्रसारित करेंगे तो वो देश के उत्थान में वे एक महत्वपूर्ण योगदान देंगे। मीडिया के दुष्प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है तो उसके प्रभाव को नकारने का प्रश्र ही कहा उठता है। मैं उन समस्त नागरिकों और संस्थाओं और पार्टियों से अपील करता हूं कि यदि अच्छा कार्य कोई भी व्यक्ति, संस्था या पार्टी करती है तो खुले दिल से उसकी प्रशंसा होनी चाहिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए न कि उसकी आलोचना होते हुए मूक रूप से देखते रहना चाहिए।
अंत में एक बात और जो आरएसएस पर साम्प्रदायिकता का आरोप अक्सर दिग्विजय सिंह द्वारा जड़ा जाता है। वह वास्तव में गलत व एक तरफा है। किसी एक सम्प्रदाय (दिग्गी राजा के शब्दों में हिन्दु) को संगठित कर एक संगठन खड़ा करना साम्प्रदायिकता है तो यही सिद्धांत दूसरा सम्प्रदायों पर वे क्यों लागू नहीं करते है। क्या दूसरेसम्प्रदाय के लोगो ने अपना संगठन नहीं बनाया है। यदि हिंदु समाज की ही बात करे तो उसमें भी विभिन्न समाजो के सामाजिक स्तर पर अखिल भारतीय स्तर से लेकर जिले तक कई संगठन है। जब २५ करोड़ वैश्य समुदाय का अ.भा.वै. महासम्मेलन संगठन यदि साम्प्रदायिक नहीं है तो तब १०० करोड़ हिन्दुओ को संगठित करने वाला संगठन साम्प्रदायिक कैसे? साम्प्रदायिकता संगठन बनाने से नहीं विचारों से पैदा होती है। यदि एक सम्प्रदाय वाले लोग दूसरे सम्प्रदाय के लोगो को घृणा की दृष्टि को देखते है तो वह साम्प्रदायिकता है जिसे अवश्य कुचला जाना चाहिए?
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संघ पारिभाषिक शब्दावली

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सरसंघचालक - संघ के मार्गदर्शक
सरकार्यवाह - संघ के निर्वाचित सर्वोच्च पदाधिकारी
संघ चालक - स्थानीय कार्य व कार्यकर्ताओं के पालक
मुख्य शिक्षक - नित्य चलने वाली शाखा के कार्यक्रमों को संचालित करने वाला।
कार्यवाह - शाखा क्षेत्र का प्रमुख।
गटनायक - शाखा क्षेत्र के एक छोटे भौगोलिक भाग का प्रमुख।
प्रचारक - संघ कार्य हेतु पूर्णतः समर्पित जीवनदानी कार्यकर्ता।
शाखा - संस्कार निर्माण हेतु नित्य प्रति का एकत्रीकरण।
उपशाखा - एक स्थान पर चलने वाली विभिन्न शाखाएँ।
बैठक - विचार मंथन व सामूहिक निर्णय प्रक्रिया हेतु एकत्र बैठने की प्रक्रिया।
बौद्धिक - वैचारिक प्रबोधन का कार्यक्रम/भाषण।
समता - अनुशासन के प्रशिक्षण हेतु शारीरिक कार्यक्रम।
सम्पत - कार्यक्रम प्रारम्भ करने हेतु स्वयंसेवकों को निश्चित् रचना में खड़ा करने की आज्ञा।
विकिर - शाखा कार्यक्रम के समाप्ति की अंतिम आज्ञा।
दण्ड - लाठी
चंदन - एकसाथ मिल बैठकर जलपान करना।
सहभोज - अपने.अपने घर से लाये भोजन को एकसाथ मिल बैठकर खाना।
शिविर - केम्प
संघशिक्षा वर्ग - संघ की कार्यपद्धति सिखानें हेतु क्रमबद्ध त्रिवर्षीय प्रशिक्षण योजना।
सार्वजनिक समारोप - शिविर तथा वर्ग का अंतिम सार्वजनिक कार्यक्रम।
रवानगी समारोप - समारोप वर्ग का केवल शिक्षार्थियों के लिए दीक्षांत कार्यक्रम।
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अनेकता में एकता

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‘‘अनेकता में एकता का हमारा वैशिष्टम हमारे सामाजिक जीवन का भौतिक एवं आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में व्यक्त हुआ है। वह उस एक दिव्य दीपक में समान है जो चारों ओर विविध रंगों के शीशों से ढका हुआ हों। उसके भीतर का प्रकाश दर्शक के दृष्टिकोण के अनुसार भांति भांति के वर्णों एवं छायाओं में प्रकट होता है।’’

’’श्रीगुरूजी’’
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संतो द्वारा समरसता के प्रयास

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आद्य संकराचार्य

देश की एकता, अखण्डता एवं समरसता निर्माण में अपने यहाँ संतो का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

संतो की लम्बी श्रंृखला में से कुछ प्रमुख संत-

1. आद्य शंकराचार्य- एकात्म भाव निर्माण के लिए पंचायतन पूजा अर्थात पंचदेवताओं की पूजा एवं चार मठों की स्थापना। (हजारों वर्षो तक एकता बनाये रखने के लिए है।)


गुरुनानक देव जी

2. श्री गुरुनानक देव ने सामुहिक भजन, भोजन एवं पूजन की बात कही। (संगत, पंगत एवं गुरु द्वारा)


3. संत तुलसीदास ने लोक भाषा में रामायण लिखकर लोक जागरण का कार्य किया। समाज में आत्मविश्वास का भाव एवं मुगलों से प्रतिकार करने का भाव जगाया। सम्पूर्ण देश में हनुमान मंदिरों और व्यायाम शालाओं का निर्माण करके शक्ति जागरण का कार्य किया।

संत तुलसीदास जी

4. आचार्य शंकरदेव ने आसाम क्षेत्र में कर्मकाण्ड का विरोध किया एवं प्रभुनाम का स्मरण करने के लिए प्रेरणा दी। नाटकों का मंचन प्रारम्भ कर समाज जागरण का कार्य किया। गीता, भागवत, उपनिषदों का असमियाँ में अनुवाद कराया।

समर्थ रामदास

5. नायनमार-अलवार ने दक्षिण क्षेत्र में भक्तिमय वातावरण बनाया तथा पूजा पद्धति में आये दोषों को दूर किया।

6. समर्थ रामदास जी ने

सामाजिक समरसता के भाव का निर्माण किया। अछूत वर्गो को भोजन कराने का उदाहरण सर्वविदित है। हनुमान मंदिर एवं 1100 व्यायाम शालाओं की स्थापना एवं उनके महंत तय किये। एक हजार सूर्य नमस्कार उनके शिष्यों द्वारा करने का

दृष्टांत ध्यान देने योग्य है। शिवाजी को ‘‘छत्रपति शिवाजी‘‘ बनाने में समर्थ रामदास एवं उनके शिष्यों का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

7. संत एकनाथ जी ने मुगल शासनकाल में अपने व्यक्तिगत और व्यक्तित्व से अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये। पिता के श्राद्ध में झूंडो को भोजन कराना हो अथवा, गधें को गंगाजल पिलाने की बात हो।

8. संत तुकाराम ने अभंगो की रचना कर समाज को दिशा प्रदान की हिन्दु जीवन दर्शन की बाते बताई।

9. विद्यारण्य स्वामी- ने दक्षिण भारत में हिन्दू साम्राज्य का बहुत बड़ा केन्द्र विजय नगर साम्राज्य की स्थापना की। घर वापसी का काम उन्होने प्रारम्भ किया हरिहर एवं बुक्का को हिन्दू बनाया।

10. भक्त पीपाजी गांगरोन के महाराजा थें वे अवतारी पुरूष थे। गुरुगं्रथ साहिब में उनकी वाणी का उल्लेख है।

धन्ना भगत

11. संत धन्ना भगत ढोंढ के पास धुँआ गॉव के थे। सद्गुण उपासक थे, ऐसा कहा जाता है कि स्वयं श्रीकृष्ण उनकी खेती करते थे।

12. बाबा रामदेव एक जागीरदार थे, फिर वे संत हो गये। समाज में ऊंच-नीच का भाव समाप्त करने के लिए कार्य किया। आज भी समाज उनमें श्रद्धा रखता है।

बाबा रामदेव
मीरा बाई

13. संत जम्बनाथ जी ने बीस और नौ अर्थात 29 नियम बनाकर समाज को अहिंसा की प्रेरणा दी। जीव सुरक्षा एवं जीव दया का भाव निर्माण किया। जोधपुर के पास खेजडली गाँव में 363 विस्नोई समाज के महिला पुरूषों ने वृक्ष बचाने केलिए अपना बलिदान दे दिया।

14. भक्त मीरा के सत्संग में जातिपाति का भेद नहीं था। मेड़ता के कृष्ण मंदिर में प्रथम प्रसाद चर्मकार परिवार से चढ़ाने का विधान है।

15. राम स्नेही सम्प्रदाय ने जातिपाति के बन्धनों को मिटाया।

16. नाथ सम्प्रदाय, मारवाड़ एवं शेखावटी के हिन्दुओं को हिन्दू बनाये रखने में नाथ सम्प्रदाय, का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

संत तुकाराम

17. गोविन्द गुरु ने वनवासी क्षेत्रो में माँसाहार, एवं चोरी नहीं करने की शिक्षा दी।

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राष्ट्र प्रगति की दसा और दिशा क्या हो?

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इक्सीसवी सदी के प्रथम दशक के अंतिम वर्ष की ओर हम बाद रहे हैं। फिर भी एक यक्ष प्रश्न हम सबके सामने हैं। विकास का पैमाना किसे माना जायें ? क्या हो विकास कि सही परिभाषा , जिसके आधार पर हम कह सकें कि हम कहॉं तक पहॅुंचे ? आगे हमें कहॉं जाना हैं ? विज्ञान की प्रगति के चरम शिखर के इस युग में मानव जाति के समग्र उत्कर्ष की परिभाषा तक तय नहीं कर पाये, तो आपको अजीब सा लगेगा। कि शायद इन्हें दिखाई नहीं देता। मॅंहगाई भले ही अभी नये आयाम पार कर उत्कर्ष तक छलांग लगा रही हैं। बड़े बड़े शहर फ्लाय ओवर सुपर स्टोर मेट्रो बड़ी बड़ी बिल्डिगों का भवन निर्माण क्या इन्हें दिखाई नहीं देता ? सड़कों पर दौड़ती आलीशान कारें नहीं दिखाई देती हैं ? हमें सब दिखाई देता हैं । पर क्या करें विकास की परिभाषा तय किये बिना हम कैसे कहें कि यही सच्चा विकास हैं। यदि यहीं विकास हैं। तो मानसिक रूप से अशांत होकर ढेरों व्यक्ति क्यों आत्महत्या कर रहे हैं। मनोविकारों एवं नये असाध्य रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही हैं। बढ़ती समृद्धि के साथ परिवार क्यों टूट रहे हैं। पश्चिम में भौतिकवाद की ऑंधी थमती सी दिखाई दे रही हैं। वहीं लोग भारतीय संस्कृति योग, अध्यात्म एवं शांति का मार्ग पकड़ते दिखाई दे रहे हैं। पर क्या कारण हैं कि हम भारतवासी आत्मघाती भौतिकवाद, पाश्चात्यवादी क्षणिक सुख वाले उपभोक्तावाद में लिप्त होते जा रहे हैं ? क्या यही विकास का पैमाना बनेगा। कि नये डिस्को थीक कितने बने, कितने अंग्रेजी भाषा में पढ़ने वाले स्कूल कॉलेज बढ़े, डोनेशन पर आधारित अच्छी अच्छी युनीफार्म पहनने वाले छात्र छात्राओं से भरे मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज मैनेजमंेट संस्थान अधिक बढ़ते चले जा रहे हैं, भ्रष्टाचार के साक्षात नमूने इन संस्थानों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती जा रही हैं। क्या इसी को प्रगति का आधार माना जावें ? देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, कृषि योग्य सिंचित भूमि जो फसलों के रूप में सोना उगलती थी क्रमशः सिकुड़ती जा रही हैं। ये किसान अपनी भूमि बेचकर करोड़पति तो बन रहे हैं पर जीवन विद्या के अभाव में सब कुछ शीघ्र ही लुटाकर शराब में लिप्त हो जीवन बर्बाद करते हुए देखे जा रहे हैं गॉंव उजड़ रहे हैं। युवा प्रतिभावान वहॉं से पलायन कर रहे हैं, तथा शहरों की ओर जा रहे हैं। ऐसे ग्रामीण बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही हैं जो अब कस्बों शहरों में रहकर नकारा बन रहे हैं । हमारी गायों का कटना जारी हैं। हमारे धर्म में जिसे जन्मदात्री मॉं से भी बड़ा दर्जा दिया गया हैं जो सर्वकल्याणकारी, मंगलकारी हैं, उसका मॉंस विदेशों को निर्यात किया जा रहा हैं, फैशन हेतु सामान के निर्माण हेतु गाय के बछड़ों का वध किया जा रहा हैं। क्या इसे प्रगति कहा जायेगा ? आज हमारी सोच वह हैं या बन गई हैं जो हमें समाचार पत्र या इलेक्ट्रानिक मीडिया बताता हैं सभी चैनलोें को राजनीतिज्ञों को दिखाने सिनेमा के कलाकारों के मंनोरंजन एवं खेलों का प्रदर्शन करने से ही फुरसत नही तो क्या समझेंगे कि देश में क्या हो रहा हैं ? विकास के नाम पर हमारी सांस्कृतिक जड़ों को काटा जा रहा हैं। भले ही समृद्धि का तथा कथित हरा भरा वृक्ष कभी भी गिर जाय, सारे रास्ते अब शहरों की ओर जाते हैं महानगरों की ओर जाते हैं वहीं सुख हैं, वहीं सपने हैं, वही सब कुछ हैं और वहीं हम सबके आराध्य हैं इष्ट मित्र हैं । यही सोच हमारी आज बना दी गई हैं। हम भी नादान हैं आम भारतीय की सोच भी वहीं बन गई हैं, एवं यहीं कारण हैं कि हमें इस विकास के पीछे छिपा विनाश दिखाई दे रहा हैं। प्राकृतिक आपदा आई नहीं बल्कि हमने निमंत्रण देकर बुलाई हैं रेगिस्तान बने नहीं हमने बनाये हैं, नदियॉं सूखी नहीं, अपितु सुखाई गई हैं। जमीन की गहराई में भू गर्भ में छिपा जल तो हमारे प्राणों का स्त्रोत हुआ करता था, हमने खीच खीचकर समाप्त कर दिया हैं। अगला विश्व युद्ध पानी पर हो तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। आज ग्लोबल वार्मिग जलवायु परिवर्तन इन विषयों पर विश्व भर में चर्चा हैं। सारे वन प्रदेश वनों से रहित हो रहे हैं, वन्य प्राणी घोर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। क्या यही प्रगति हैं ? तो क्या हम रोना ही रोते रहे ? हमें आज विकास की नई परिभाषा गढने की आवश्यकता हैं।
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राष्ट्र के सर्वांगिण विकास को समर्पित व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, विकास के जिसमें तत्व छिपे हों ऐसा पुरूषार्थ हो शिक्षा और विद्या को जो जोड़े एवं सुसंस्कारित व्यक्तित्व बनाये, वह विकास हमें चाहिए जो गौ माता का वध रोककर उनका वंश बढ़ाने की गौ आधारित कृषि एवं जीवन शैली विकसित करें वह विकास हमें चाहिये। योग को जो हमारे जीवन जीने कि विद्या के रूप में हर श्वास में स्थापित करें। वह विकास हमें चाहियें। जो हमारे परिवारों को तोडे नहीं जोड़े, हमारे वृद्धजनों, बुजुर्गों का सम्मान करना हमें सिखायें वह विकास हमें चाहिये। अब यह कैसे हो विकास तो इसके लिए नूतन परिभाषा को अपनी व्यवस्था को, जीवन शैली को बदलना होगा। क्या क्षणिक लाभ का आकर्षण छोड़ दूरगामी हित वाला विवेक धारण कर सकते हैं ? बहुत छलावे में जी चुके हैं, अस्थाई आराम देनेवाला जीवन जी चुकें। क्या बची जिन्दगी में कुछ क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं ? यह प्रश्न हमें अपने आप से पूछना हैं और युगानुमूल समाधान की खोज के लिए तत्पर होना हैं।
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संघ कार्यपद्धति की विशेषताए

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(एक दृष्टि में)

- संघ का कार्य ईश्वरीय कार्य है।
- योग्य वाहकों के माध्यम से भगवान कार्य करते है, स्वयं नहीं।
(महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण की तरह।)
- ईश्वरीय कार्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति को निमित्त बनना पड़ेगा।
- कार्य जितना महत्व का है, उतना ही महत्व है उसको करने वाले का।
- विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति समाज में चाहिए, यह मूलभूत आवश्यकता है। अपनी अनोखी कार्यपद्धति से व्यक्ति का निर्माण होता है, यह बयासी वर्षों से सिद्ध हो चुका है।
- अपनी कार्यपद्धति अनुभव के आधार पर विकसित है। परमपूज्य डॉ. साहब ने 1914 से 1925 तक अनेक प्रयोग किये। संघ स्थापना के पश्चात् 1939 सिन्धी की बैठक में गहन विचार विमर्श के पश्चात् कार्यपद्धति को सुनिश्चित किया गया।
- अपनी कार्यपद्धति देश, काल, परिस्थिति निरपेक्ष है। कार्यपद्धति का आधार श्रद्धा और विश्वास है। कुछ बातों को तर्क से नहीं समझा जा सकता है और न ही समझाया जा सकता है।
- अंतःकरण के विश्वास से शाखा चलती है।
- श्रद्धा से काम करने वाला ही सफल हो सकता है। आपको ज्ञात है, संजय गांधी एवं नक्सलवादियों द्वारा शाखा चलाने का असफल प्रयास किया जा चुका है।
- हम मनुष्य का उत्पादन नहीं, निर्माण करते है।
- अपना काम यांत्रिक नहीं, जीवंत है।
- अपने काम का आधार शुद्ध सात्विक, प्रेम एवं आत्मीयता है।
- यहां एक-एक व्यक्ति का सम्मान एवं महत्व है, किन्तु व्यक्ति के प्रति मोह नहीं है।
- शाखा पर स्वयंसेवकों के हिसाब.किताब का उदाहरण सभी के लिए प्रेरक है।
- हम ध्येय के पूजक है। संघ का स्वयं सेवक हूँ। यह भाव चाहिए। किसी स्थान व किसी व्यक्ति द्वारा निर्मित हूँ, यह भाव नहीं चाहिए।
- संघ आचरण की छोटी.छोटी बातों पर ध्यान देता है एवं आग्रह करता है।
- आग्रह के कारण व्यक्ति दूर नहीं जाता अपितु जुड़ता है।
- भाषण या बौद्धिक से व्यक्ति का निर्माण नहीं होता, अपितु सम्पर्क, घनिष्ठता तथा आत्मीयता से व्यक्ति का निर्माण होता है।
- संघ स्वयंसेवको के समर्पण भाव से चलता है।
- स्वयं का जीवन और समय देकर स्वयंसेवक कार्य करता है।
- संघ को तात्कालिक लोकप्रियता की जरूरत नहीं है। संघ स्वावलंबी एवं स्वतंत्र है। इसलिए डंके की चोट पर सच.सच बोलता है। यह बनाये रखने की आवश्यकता है।
- पक्षी अपने बलबूते पर ऊपर उड़कर जाता है। सूखा पत्ता हवा के साथ जाता है और गिरता है। संघ पक्षियों के समान है।
- हम अपने ढंग से कार्य करते है, प्रचार करते है। मीडिया का प्रभाव तीन दिन तथा अपने सम्पर्क का प्रभाव तीन जन्म अर्थात अपने कार्य का मूलाधार लोक सम्पर्क है।
- अपना काम, निष्काम कर्मयोग है।
- अपनी कार्यपद्धति की विशेषता को समझकर कार्य को आगे ले जाना है।
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विश्व समुदाय : एक तथ्यात्मक जानकारी

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धर्म :
* हिन्दू धर्म - 1,9729,49,120 वर्ष पुराना
* ईसाई मत - 2,005 वर्ष पुराना
* इस्लाम मत - 1,430 वर्ष पुराना
* विश्व की कुल जनसंख्या - 600 करोड़
* ईसाई - 240 करोड़
* मुस्लिम - 130 करोड़
* बौद्ध - 140 करोड़
* हिन्दू - 90 करोड़
मतावलम्बी देश -
* ईसाई - 80
* मुस्लिम - 58
* बौद्ध - 18
* हिन्दू - 06
विश्व के महाद्वीप - 07
* उत्तरी अमेरिका - ईसाई
* दक्षिणी अमेरिका - ईसाई
* यूरोप - ईसाई
* आस्ट्रेलिया - ईसाई
* अफ्रीका - मुस्लिम प्रकृति
* एशिया - बौद्ध, हिन्दू व मुस्लिम
* अंटार्कटिका - बर्फीला प्रदेश
भारत
* विभाजन के समय 15 अगस्त 1947 को जनसंख्या -
* भारत में मुस्लिम - 3.50 करोड़
* पाकिस्तान में हिन्दू - 2.75 करोड़
* वर्तमान में जनसंख्या -
* भारत में मुस्लिम - 13.8 करोड़
* पाकिस्तान में हिन्दू - 20 लाख
* बांग्लादेश में हिन्दू - 1.21 करोड़

> डी.डी.उइके
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सेवा कार्य - सामाजिक परिवर्तन का माध्यम

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जैसा कि नाम से ही सेवा का प्रकटीकरण होता हैं। “राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ“ राष्ट्र की सेवा करने वाला संगठन, स्वयं के द्वारा, संकल्पित, स्वयं सेवक, किसी के दबाव में नहीं, अपितु अपनी इच्छा से राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित होने का पावन, पवित्र भाव । स्वयं की प्रेरणा से सेवा करने वाला स्वयं सेवक । संघ के प्रारम्भ से ही सेवा हमारी आधार शिला है । आपको विदित है, कि शाखा स्थल पर सफाई, स्वच्छता का कार्य, परम पूजनीय डाँ. साहब स्वयं करते थे और अन्य स्वयं सेवकों के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हुए, अपनी सेवा भावना से प्रेरित करते थे । वह छोटा सा सेवा का संस्कार हमें उत्कृष्टता की दिशा में चलने, सोचने की शिक्षा देता है। सेवा कार्य समाज के प्रति अत्यन्त आत्मीय भाव से ही संभव होता है । परम पूज्य डाँ. जी के जन्म शताब्दी वर्ष में सेवा बस्ती में जाने के निर्णय से सेवा कार्य का अत्यन्त विस्तार हुआ है । हमारी लम्बी उपेक्षा के कारण सेवा बस्तियों में, अस्वच्छता, अभाव, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, बेरोजगारी, अपराध जैसी गतिविधियाँ, स्थितियाँ दिखाई पड़ती है। इसलिए एक शाखा एक बस्ती की योजना के माध्यम से हमने समूचे भारत वर्ष में युद्ध स्तर पर अभियान चलाया हुआ है। विधिवत गंदी बस्तियों की चिन्ता के साथ अन्य समस्याओं के समाधान के लिए सेवा को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया है। सेवा के विविध कार्य, प्रयत्न, इन बस्तियों में संचालित किये जा रहे हैं। कुछ कार्यकर्त्ता सभी बुराइयों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराकर प्रसन्न हो जाते है। कुछ कार्यकर्त्ता राजनीतिक विकृतियों तथा कुछ लोग ईसाई, मुस्लिम आदि दूसरे सम्प्रदायों की आक्रामक गतिविधियों पर दोषारोपण करते हैं। परन्तु हमारे कार्यकर्त्ता को अपने मस्तिष्क को ऐसी प्रवृतियों से मुक्त रखकर अपने धर्म एवं बन्धुओं के लिए शुद्धभाव से कार्य करना चाहिये जिन्हे सहायता की आवश्यकता है उन्हे सहयोग देना और विपत्तियों से मुक्त करने हेतु सतत् प्रयास करना चाहिये। इस सेवाकार्य में व्यक्ति-व्यक्ति में कोई भेद नहीं करना चाहिये, फिर वह चाहे ईसाई हो या मुसलमान अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय का अनुयायी । दैनिक आपदा, कष्ट अथवा दुर्भाग्य कोई भेदभाव नहीं करते, इनसे सभी समान रूप से प्रभावित होते हैं। मानवता के कष्ट निवारण के कार्य में सेवा करते समय कृपा अथवा दया भाव से नहीं बल्कि सभी के हृदयों में विद्यमान परमात्मा के प्रति समर्पित भक्ति मय अर्चना भाव से करना चाहिये। हमें सेवा के विविध कार्य जैसे जल संरक्षण, जैविक कृषि, कुरीति उन्मूलन अश्पृश्यता निवारण, दुर्व्यसन उन्मूलन जैसे सेवा कार्यों की योजना बनाकर सेवा बस्ती को सेवा क्षेत्र बनाना चाहिये। सर्वप्रथम सेवा बस्तियों का अध्ययन करना चाहिए। वहाँ किस प्रकार की सेवा योजनाएँ चलाई जा सकती है। कार्यक्रम तैयार करना चाहिये। हमारे सेवा कार्य के चार प्रकार है। (1) शिक्षा (2) स्वास्थ्य (3) स्वावलम्बन (4) सामाजिक समरसता
(1) आज भी देश मे 28 प्रतिशत निरक्षर रहते है। यह शासकीय ऑकड़ा है। यह हमारे राष्ट्र के माथे पर कलंक है। जिस देश में अपने मत का सही-सही प्रयोग करने की मानसिकता और समझ विकसित नहीं हो पाई है। उस देश में पढ़े लिखे लोगों के लिए लज्जा और चिंता का विषय होना चाहिये। हमें इन सेवा बस्तियों में बाल संस्कार केन्द्र, झोला पुस्तकालय जैसे छोटे-छोटे उपक्रमों से शिक्षा देने का कार्य प्रारम्भ करना चाहिये। सप्ताह में एक या दो दिन का समय इन बस्तियों में हमें देना ही चाहिये । हिन्दुत्व का भाव पहुँचाने का माध्यम है सेवा कार्य । साप्ताहिक सेवा दिन की पालना प्रत्येक शाखा में होना चाहिये। इस प्रकार के सेवा कार्य से धर्मान्तरण एवं मतान्तरण रूक सकता है।
(2) स्वास्थय - के सम्बंध में हमें सप्ताह में एक दिन स्वच्छता अभियान इन बस्तियों में चलाना चाहिये। छोटी-छोटी बाते जैसे हाथ धोकर ही खाना खाना, घर के चारो ओर साफ स्वच्छ रखना घर के आँगन में तुलसी का पेड़ पर्यावरण की दृष्टि से श्रेष्ठ है। बताना प्रतिदिन स्नान, ध्यान एवं पूजन करना भारतीय रसोई घर में प्रयुक्त होने वाले मसाले जैसे हल्दी, लहसून, अदरक, जीरा, राई, अजवाइन, मैथी जैसे अनेक वस्तुओं में निहित औषधीय गुणो एवं कौन सी बीमारी में क्या कैसे लेना बताया जा सकता है। कोई बीमार है तब सावधनियाँ क्या रखी जानी चाहिये यह बताया जा सकता है। निकटवर्ती शासकीय/अशासकीय चिकित्सालय में ले जाने या ले जाकर उचित उपचार कराया जा सकता है। विभिन्न्ा वनस्पतियों के औषधीय गुणों के सम्बंध में जानकारी उपलब्ध कराई जा सकती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए पीपल, बरगद एवं अन्य वृक्षों को लगाने से लाभ बताये जा सकते है। मित्रों सेवा कार्य के लिए अपार संभावनाएँ स्वास्थय क्षेत्र में विद्यमान है।
(3) स्वावलम्बन के क्षेत्र में भी अपार संभावनाएँ है। बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। इन दिनो बेरोजगारों का उपयोग राष्ट्रविरोधी, समाज विरोधी कार्यों में कराया जाना संभव है। कुछ घटनाएँ प्रकाश मंे भी आई है। उस सेवा बस्तियों का अध्ययन करके योजना बनाई जा सकती है।
(4) सामाजिक समरसता - सामाजिक कुरीतियों, कुप्रचलनों को समाप्त करने हेतु छोटे-छोटे ज्ञानवर्धक गोष्ठियों का आयोजन कराया जा सकता है। सामाजिक समरसता की भावना को जन-जन तक पहुँचाना, इस बस्ती में रामायण मंडल, भजन मंडल, हवन पूजन, कन्या पूजन योग, व्यायाम केन्द्र प्रभातफेरी इत्यादि कार्यों द्वारा सामाजिक समरसता का वातावरण तैयार किया जा सकता है । इन सेवा कार्यो से समाज में आत्मविश्वास पैदा होता है। संघ से प्राप्त संस्कार को समाज में बाँटने का काम सेवा कार्य है। सेवा करते समय ध्यान रखना चाहिये कि सेवा प्राप्त करने वाला सेवित, स्वयं सेवक बन सकें। सेवा कार्य समाज को साथ लेकर करना, सामाजिक परिवार भाव का जागरण करना सम्पर्क से जीवन में परिवर्तन तथा सेवा कार्य से सामाजिक परिवर्तन अपना उद्देश्य रहे।
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श्री गुरूजी के जीवन दर्शन के कुछ प्रेरक, प्रसंग, संस्मरण

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१. संस्कार संक्रमित होते है।
जनवरी सन् 1948 को कोच्ची में संघ-स्वयंसेवको के अनुशासन, प्रामाणिकता, समर्पण भाव आदि की सराहना करते हुए सुविख्यात मलयालम लेखक श्री पी.राम मेनन ने श्री गुरुजी से पूछा- इन उत्तम संस्कारों की शिक्षा आप किस प्रकार देते है?
श्री गुरुजी- शिक्षा द्वारा उत्तम संस्कार हृदयंगम नहीं किये जाते। निकट सम्पर्क से और परस्पर विश्वासपूर्ण मित्रता से वे संक्रमित होते है।
श्री मेनन- बिलकुल ठीक, ऐसा ही संभव है।

2. हर बाला माता की प्रतिमा
सन् 1949 की बात है, एक महिला अपनी आठ वर्षीय बालिका को लेकर श्रीगुरुजी के दर्शनार्थ आई और उससे बोली ‘गुरुजी के गले में पुष्पहार डालकर उनको नमस्कार करो। ‘पुष्पहार लेकर ज्यों ही बालिका श्री गुरुजी की ओर बढ़ी, त्यों ही श्री गुरुजी ने जल्दी से खड़ें होकर पुष्पहार उसके हाथों से ले लिया और बालिका के चरणों का स्पर्श किया। यह देखकर आश्चर्यचकित माता बोली- आपने यह क्या किया? मैं तो अपनी बच्ची को आपसे आशीर्वाद दिलाने लाई थी और एक आप है कि उसके चरण स्पर्श कर रहे हैं।
श्री गुरुजी ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया- आपके लिए वह बच्ची होगी, परन्तु मेरे लिए तो वह साक्षात ‘‘माँ‘‘ है।

3. जातियाँ गुणधर्म से
‘‘अगस्त 1955 को हिस्सार (हरियाणा) में सांयकालिन चाय पर वार्ता करते हुए श्री गुरुजी ने पं. दीनदयाल जी से कहा- कंस भगवान श्री कृष्ण का मामा ही तो था, परन्तु उसे राक्षस कहा गया है। रावण के दस सिर और बीस हाथ थे और वह राक्षस था। विभीषण उसका सगा भाई था, पर मानुषी शरीर रचना और सात्विक वृत्ति का था। एक राक्षस और दूसरा मनुष्य जाति का हुआ। कारण रावण के गुणधर्म राक्षसी थे, विभीषण के मनुष्य समाज के अनुकूल थे। इसका स्पष्ट निर्देश इसी एक बात से मिलता है कि गुणधर्म की जातियां ही अपने यहाँ मानी जाती थीं।

4. सभी संघ के है।
23 सितम्बर 1953 को जालंधर में 20-25 परिवारों के गणेशोत्सव आयोजन में श्री गुरुजी का जाना हुआ था। उनमें कुछ स्वयंसेवक भी थे। परिचय कराते समय उत्सव के प्रमुख पदाधिकारी ने श्री गुरुजी से कहा - यह श्रीमान, आपके आर.एस.एस. के है।
श्री गुरूजी- आर.एस.एस. मेरा नहीं है, मै उसका हूँ। व्यापक का अंश छोटी चीज होती है। ईश्वर का मैं हूँ, ईश्वर मेरा नहीं। तरंग समुद्र की होती है, तरंग को समुद्र कहना ठीक नहीं होगा।‘
आपका संघ कहने से हम उसके बाहर है, ऐसा मानते है। ऐसा हम न माने हम सभी संघ के हैं, कोई पास है, कोई भले ही थोड़ी दूरी पर हो, परन्तु है साथी संघ के है।

5. शिव का तृतीय नेत्र
18 से 20 फरवरी 1966 को कालिकट (केरल) में सम्पन्न हुए स्वयं सेवको के शिविर में श्री गुरूजी उपस्थित थे। अभी निवास व्यवस्था जिस कमरे में थी, उसके ठीक सामने ही सुप्रसिद्ध शिव मंदिर था। एक कार्यकर्ता ने कहा - शिव भगवान आपके कमरे की ओर देख रहे है। क्या वे अपने तृतीय नेत्र से दृष्टिक्षेप कर रहे है? उनका तृतीय नेत्र तो बड़ा डरावना कहा गया है।
श्री गुरूजी ने कहा- श्री शिवजी के हृदय में जिनके प्रति सद्भावना रहती है, उनके लिए तृतीय नेत्र भयकारक नहीं, अपितू कृपा करने वाला ही होता है। स्वामीं विवेकानंद जी ने कहा था कि रौद्र रूप में भी भगवान का दर्शन कर उसकी पूजा करें। अपना संघ कार्य ऐसा ही है।

6. नया दृष्टिकोण
19 फरवरी 1972 को श्री गुरुजी नौगाँव (असम) में जिला संघ चालक श्रीभूमिं देव गोस्वामीं जी के घर पर ठहरे थें। वहाँ वार्तालाप में हिन्दू-समाज में आ रहे परिवर्तनों की बात चल पड़ी। उसी में मिश्र विवाहों की चर्चा छिड़ी।
मणिपुर के श्री मधुमंगल शर्मा ने श्री गुरुजी से पूछा- आज अनेक हिन्दू अहिन्दुओं से विवाह करते है। उनकी संतानों का भविष्य क्या होगा ?
श्री गुरुजी ने उत्तर दिया- ऐसे सभी अहिन्दुओं को हिन्दू बना लेना चाहिए उनकी संताने भी हिन्दू ही होगी।‘
उस पर श्री शर्माजी ने कहा- हिन्दू समाज अभी तक इतना प्रगतिशील कहाँ हुआ है?
तब उन्होने कहा- हिन्दू समाज के रक्षण और नई समाज रचना के लिए यह करना ही पड़ेगा। हिन्दू समाज धीरे-धीरे इस व्यवस्था को स्वीकार कर लेगा।‘

7. माता की सेवा का प्रचार
मई 1972 में ग्वालियर- प्रवास के समय ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर‘‘ नामक पुस्तक, जिसमें भारत पाक युद्ध के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की सेवाओं का तथ्यपूर्ण उल्लेख था, श्री गुरुजी को भेंट दी गई। भेंटकर्ता का दावा था कि उल्लेखित तथ्य भविष्य में इतिहास की सामग्री बन सकते है और इस प्रकार के साहित्य से संघकार्य का प्रचार भी हो सकता है।
श्री गुरुजी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- यदि कोई पुत्र माँ की सेवा करने का समाचार प्रकाशित करे, क्या उसे श्रेयस्कर माना जा सकता है ? स्वयंसेवकों ने भारत माता की सेवा में जो कुछ किया, वह उनका स्वाभाविक कर्तव्य ही था, अतः उसका प्रचार कैसा ?
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गोहत्या भारतीयों के माथे पर कलंक

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ- द्वारा गोहत्या के विरोध मंे चलाये जा रहे अभियान का उद्वेश्य इस प्रश्न पर जन जागरण करना, सम्पूर्ण देश के वयस्क व्यक्तियों के हस्ताक्षरों के रूप में जनमत को अभिव्यक्त करना और दुधारू या बूढ़ी या बाछी गोहत्या पर देशव्यापी प्रतिबंध के लिए सरकार से आग्रह करना है। पशुओं की सुरक्षा की आवश्यकता का पहला कारण तो यह है कि अपना देश मुख्यतः कृषि प्रधान है और यहाँ सामुहिक या विशाल पैमाने पर जोत की प्रथा नहीं है। आचार्य विनोबा भावे का मत है कि छोटे भूखण्डो जैसे 05 एकड़ के वित्तरण से सभी को और विशेषतः बेराजगारों को रोजगार देने से समस्या हल हो सकती है। इन सब पहलुओं को देखते हुए इस देश में यंत्रों द्वारा खेती बहुत सफल होने की संभावना नहीं है। इसलिए खेती के विभिन्न कामों के लिए पशुओं की बड़े पैमाने पर आवश्यकता है। खाद की पूर्ति भी एक पहलू है। किन्तु वह तभी मिल सकती है। जब आजकल बड़े पैमाने पर होने वाला गोधन का भीषण संहार रोका जाये। गाय के प्रति जन साधारण की अनन्य श्रद्धा है। और यही बात मुझे सबसे अधिक जंचती है। जनश्रद्धा के विषयों की आज जिस प्रकार से अवहेलना हो रही है। वह दुख-दायक है। लोगों को राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित करना तभी संभव होगा, जब प्राचीन परम्परागत श्रद्धाओं का लोगों में पुनर्जागरण किया जायेगा। इस दृष्टि से सोमनाथ मंदिर का पुननिर्माण एक प्रशंसनीय उदाहरण है। क्योंकि उसका लक्ष्य था पराजय और दासता की भावना को समूल नष्ट करना। गौरक्षा से भी वही लक्ष्य साध्य होगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अन्य दलों के समान कोई दल नहीं है, फिर भी वह इस अभियान का प्रारम्भ कर रहा है। क्योंकि किसी न किसी को आगे आना चाहिये। यह अभियान किसी दल की ओर से प्रारम्भ नहीं किया गया है। इसलिए यह आशा है कि सभी दल इस अभियान में सहयोग देंगे। गौहत्या के विरूद्ध इस अभियान के विषय में संभाव्य आक्षेपों से मैं अवगत हूँ। उदाहरणार्थ- कोई यह कह सकता है कि बूढ़े पशु बोझ है। इसलिए उनकी हत्या होनी ही चाहिये। किन्तु यह सत्य नहीं है। इसके विपरित मैं समझता हूं कि यदि वृद्ध और निरूपयोगी गाय बैलों की सही देखभाल की जाये तो उससे जो लाभ होगा, वह उन पर किये जाने वाले खर्च से कही अधिक होगा। इसी प्रकार विदेशी मुद्रा का भी प्रश्न उठ सकता है। किन्तु इसे अनावश्यक महत्व नहीं दिया जाना चाहिये। विशेषतः ऐसे प्रश्न पर, जिस पर सम्पूर्ण समाज श्रद्धा रखता हो, विदेशी मुद्रा का विचार महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। यह स्पष्ट दिखाई देते हुए भी कि नशाबंदी से भारी वित्तीय हानि होगी, सत्तारूढ़ दल ने इसे चुनाव का विषय बनाया है और वित्तीय हानि की पूर्ति अन्य मार्गो से करने का प्रयास किया। मेरा निश्चित मत है कि यही बात गौहत्या के संदर्भ में भी अपनाकर विदेशी मुद्रा और चर्च व्यवसाय में होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सकती है।
इस आक्षेप में भी कोई अर्थ नहीं है कि गौहत्या बंद कर देने से गौहत्या पर आजीविका चलाने वाले बेराजगार हो जायेंगे। उन्हे दृढ़ता से कहा जा सकता है कि वे कोई अन्य अच्छा सा व्यवसाय ढूण्ढ लें। हाथ करघे का पुश्तैनी व्यवसाय करने वाले चेन्नई के बुनकरों से केन्द्रीय मंत्री श्री टी.टी. कृष्णमुचारी, यदि यह कह सकते है कि उन्हे सूत नहीं मिलता तो अन्य कोई व्यवसाय ढूँढ लें, तो फिर यही बात कसाइयों से क्यों नहीं कही जा सकती ?
अपने संविधान की धारा 48 के अनुसार दुधारू हो या शुष्क, सभी पशुओं की रक्षा आवश्यक है किन्तु शासन ने अभी तक इस सम्बंध में कुछ नहीं किया है। इसलिए सरकार को उसके कर्तव्य का स्मरण कराने के लिये संघ ने यह अभियान प्रारम्भ करने का निश्चय किया है। 26 अक्टूबर को गोपाष्टमी महोत्सव होेने के कारण उस दिन से यह अभियान शुरू होगा। गोपाष्टमी महोत्सव भगवान श्रीकृष्ण और उनके ग्वाल बालों की स्मृति मंे सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। 26 अक्टूबर से न केवल संघ के स्वयंसेवक ही, अपितु इस अभियान में सहयोग देने की इच्छा रखने वाले अन्य लोग भी घर-घर जाकर हस्ताक्षर संग्रह करंेगे। यह अभियान एक माह तक चलेगा और अंत में हस्ताक्षरों का यह संग्रह भारत के राष्ट्रपति को समर्पित किया जायेगा। हस्ताक्षर सपर्पण एक प्रतिनिधि मंडल द्वारा किया जायेगा।
शासन यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करता है तो संघ सभी संवैधानिक उपायों का अवलम्बन लेकर अगली कार्यवाही करेगा। जहाँ तक सत्याग्रह का प्रश्न है, यदा-कदा होने वाले सत्याग्रह अपने देश के योग्य विकास की दृष्टि से बहुत उपयोगी नहीं है। सत्याग्रह एक अस्त्र है और अन्य सभी अस्त्र विफल हो जाने के बाद ही उसका उपयोग करना चाहिए।
ऐतिहासिक दृष्टि से गाय के प्रति अगाध श्रद्धा का उल्लेख उतना ही प्राचीन है, जितने कि वेद प्राचीन है।
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राष्ट्र विकास की हमारी अवधारणा

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हमारे प्राचीन गुरुकुलों में प्रारम्भ से ही पंच महाभूतों की दिव्यता का लौकिक और पारलौकिक बोध उत्कृष्ट गुरुओं के द्वारा किया जाता रहा है। शिष्यों को यह बोध सदैव रहता था कि मातृभूमिं के प्रति, अपने राष्ट्र के प्रति उनका कर्तव्य क्या है? कर्तव्य की बलिवेदी पर आरूड़ होने के लिए उनका हृदय सदैव ही मचलता रहता था। किन्तु गुरुकुल परम्परा निरंतर खण्डित मंडित होती गई सैकड़ो वर्षो से, विभिन्न आक्रांता, आतताइयों द्वारा राष्ट्र के पौरूष पुरूषार्थ को ललकारा गया। अनेकों बार भारतीय संस्कृति को कुचला गया। राष्ट्र की मौलिक, भावना को ठेस पहुचाई गई। राष्ट्र विकास की अवधारणा को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। मजहब के आधार पर राष्ट्र को बाँटने का दुःसाहस किया गया। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण प्रतीत होता है कि स्वतंत्रता के पश्चात भी अपने देश के विकास का प्रारूप कैसा हो ? इसका विचार तक नहीं किया गया। विश्व पटल के अनेक राष्ट्रों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने के उपरांत ज्ञात होता है कि उन राष्ट्रांे के दूरदृष्टा नेताओं ने उनके राष्ट्र की भौगोलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक संरचना का ध्यान रखते हुए विकास की अवधारणा प्रस्तुत की किन्तु हमारे तथाकथित नेताओं ने बगैर राष्ट्र की मूल भावना और जीवन दर्शन को समझे अधिक उत्पादन के लिए कोई मंत्र विकसित दो, ताकि अधिक उपयोग किया जा सके। इस कारण बड़े-बड़े उद्योगों की कल्पना की गई, बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग बढ़ा, जिससे भारत का जन आधारित उद्योग तेल आधारित उद्योग में बदल गया। आजकल(Gross National Product) को विकास का प्रतिमान माना जाता है। इसके कारण व्यक्ति का जीवन विकसित होता है। अर्थात भौतिक सुख सुविधाएँ मिलती है। इस गलत अवधारणा के कारण समाज में स्वयं का सुख जीवन का केन्द्र बिन्दु बनते जा रहा है। व्यक्तिवाद संकीर्णतावाद तीव्रगति से बढ़ रहा है। सभी किसी न किसी स्वार्थ के पीछे पड़कर पथभ्रष्ट हो रहेहै। सच्ची सद्भावना से राष्ट्र आराधना करने वाले बिलकुल विरले ही है। सर्वसाधारण समाज स्वार्थ के परे, देश या राष्ट्र का विचार भी नहीं करता। इससे सहजता से ज्ञात होगा कि जिस पद्धति से आवश्यक व्यक्तिगत गुण विकास होता है उस पद्धति से कार्य न होने से ही समाज रचना योग्य रीति से करना संभव नहीं है। हम अपने प्रयत्नों का विचार करे तो दिखाई देगा कि सब प्रकार के संकटो से पृथक रखकर व्यक्तिगत गुणों के सर्वांगिण विकास जैसी योजना अपनी कार्य प्रणाली में दिखाई पड़ती है। वैसी अन्य कहीं भी नहीं है। व्यक्ति, समाज, सृष्टि एवं पर्यावरण में संतुलन से होने वाला विकास ही हिन्दू चिन्तन का आधार है।
जन, जानवर, जंगल एवं जमीन का संतुलित एवं समन्वित विकास ही हिन्दू चिंतन का आधार है। इस सफलता के मानवीय दृष्टिकोण का समुचित गठन परम आवश्यक है। समाज को उचित जीवन दर्शन से अनुप्राणित करना होगा। लोगों में यह क्षमता होनी चाहिए कि आत्मकेन्द्रित प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा सकें और स्व-बांधवों के सुख-दुख से एकाकार हो सकें। इसके लिए जागृत करना होगा, आत्मानुशासन। केवल उसी से समरसतापूर्ण समायोजन संभव है। राष्ट्र वैभव के सर्वतोमुखी विकास हेतु सहकारी प्रयास की अभिप्रेरणा भी उदिप्त करनी होगी। इस प्रकार ऐसी सामाजिक संरचना खड़ी हो जाए, जिसमें व्यक्तियों को जीवन के सर्वाेच्च ध्येय के सम्बंध में सम्यक दृष्टि प्राप्त हो, समस्त समाज के प्रति प्रेम और आत्मियता की भावना छलकती हो, तथा आत्मानुरूप होने का भाव विद्यमान हो। जैसे शरीर में अन्नमय कोष, प्राणमय कोष मनोमय कोष्, विज्ञानमय कोष, और आनंदमय कोष को विकास से ही व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास होता है। अन्नमयकोष दृश्य होता है। शेष चारो अदृश्य होते है। हमारे विकास की अवधारणा मात्र भौतिक तक सीमित न होकर, शाश्वत जीवन मूल्यों के उत्कर्ष के साथ खुली मिली हैं। जैसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने विकास के लिए हर एक हाथ को काम, हर खेत को पानी का विचार दिया, यही हमारे समग्र विकास का आधार है। हमें आणविक ऊर्जा के स्थान पर सौम्य ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जैव ऊर्जा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। सौम्य ऊर्जा के उत्पादन और उपयोग से सभी समस्याएँ समाप्त हो जायेगी। राष्ट्र के सर्वांगिण विकास के लिए कृषि को उद्योग के रूप में विकसित करना पड़ेगा। पश्चिम का विकास सकेन्द्रय (ब्वदबमदजतपब) है, इस रचना में व्यक्ति बीच में आता है। हमारे यहाँ विकास सर्पिल (ैचपतंस) है। जहाँ सभी ईकाईयाँ एक दूसरे से जुड़ी रहती है। हमारे यहाँ विकास की अवधारणा धर्म आधारित है, अर्थ आधारित नहीं है। इस अवधारणा में किसी का शोषण नहीं होता है। सभी में एक ही परमेश्वर का अंश होता है। हमारे यहाँ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष से युक्त रचना है। अर्थ और काम को धर्म एवं मोक्ष के बीच रखा गया है। हमारे विकास की अवधारणा समग्र विकास, सम्यक विकास एवं सुमंगलम विकास की अवधारणा है। इसमें व्यक्ति से पर्यावरण तक सभी की सुरक्षा होती है। इसी को एकात्म मानवदर्शन कहते है। यह दर्शन केवल भारत के लिये नहीं बल्कि समग्र ब्रम्हाण्ड के लिये है। हिन्दू विकास चिन्तन का सूत्रपात परम पूज्यनीय श्री गुरूजी ने किया। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इसे एकात्म मानववाद कहा। समग्र मानवता का कल्याण इसी चिंतन के आधार पर होगा।
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हिन्दू धर्म का गौरवपूर्ण ऐतिहासिक दिवस

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11 सितम्बर 1893. अमेरिका का शिकागो महानगर। प्रसंग- विश्व धर्म महासभा का आयोजन।
विश्व धर्म महासभा के मंच पर उस दिन युगनायक स्वामीं विवेकानन्द ने अपने धन्यवाद भाषण के प्रारम्भिक सम्बोधन में ‘‘अमेरिकावासी बहनों एवं भाईयों‘‘ का उच्चारण कर, विश्वबन्धुत्व के महानतम भारतीय सिद्धान्त की घोषणा की। उस समय तक विश्व की किसी भी सभ्य समाज को, ऐसा आत्मीय सम्बोधन सुनने को नही मिला था। उन्होने अद्वैत के भाव को व्यवहार की धरती पर उतारा। सभा में उपस्थित सात सहस्त्र, सुसंस्कृत नर-नारियों ने उत्फुल्ल हो कई मिनिट करतल ध्वनि की।
स्वामीजी ने कहाः-
‘‘मैं आपको विश्व में अत्यन्त प्राचीन ऐसे भारतीय, संत, अनुक्रम की ओर से धन्यवाद देता हूँं। मैं, सभी मत सम्प्रदायों को मानने वाले लाखों.लाखों हिन्दुओं की ओर से आपको धन्यवाद देता हूँ। भारत की संत परम्परा, एवं लाखों.लाखों हिन्दुओं की ओर से धन्यवाद ज्ञापित कर स्वामीजी ने भारत का सही प्रतिनिधित्व किया।‘‘ स्वामीजी ने आगे कहा कि, ‘‘ मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता एवं सार्वभौमिक स्वीकृति की उदान्त भावना की शिक्षा दी। हम मात्र सार्वभौमिक सहिष्णुता ही नहीं अपितु इस बात में भी विश्वास करते हैं कि संसार के सभी धर्म सत्य है।‘‘
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मुझे इस बात पर भी गर्व है कि मैं उस राष्ट्र से हूँ जिसने सभी धर्मो और सभी राष्ट्रों के पीड़ितो और शरणागतों को सुरक्षा प्रदान की। मुझे यह कहते हुए गर्व होता है कि हमने इजराइल के शुद्धतम अवशेषों को अपने हृदय में स्थान दिया। ठीक उसी वर्ष जबकि रोमन आततायियों ने उनके पवित्र मंदिर को ध्वस्त किया था। वे भारत के दक्षिण में आये और शरण प्राप्त की थी। मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से सम्बन्धित हूँ जिसने महान् पारसी राष्ट्र के अवशेषों को शरण देकर पोषित किया है।
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स्वामीं विवेकानन्द ने आगे कहा, मैं अपने बाल्यकाल से ही पुनरावृत्ति किये जाने वाले श्लोक के भाव को उद्धृत करता हूँ, कि ‘‘जिस प्रकार समस्त जलधाराएँ अलग-अलग स्थानों से प्रकट होकर अंत में सागर में जा मिलती है, उसी प्रकार हे ईश्वर मनुष्य भी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग मार्गों से चाहे वह वक्र अथवा सरल हो, अंत में तेरे ही पास आते है।‘‘
‘‘सम्प्रदायवाद, हठधर्मिता, धर्मान्धता और भयानक वंशवाद ने इस धरती पर शताब्दियों तक अधिकार रखकर इस सुन्दर संसार को हिंसा के द्वारा मानव रक्त में भिगोये रखा। सभ्यताओं का विनाश किया और सम्पूर्ण राष्ट्रों को दुःख में ढकेल दिया। यदि ये भयानक शैतान नहीं हुए होते तो मानव समाज आज से कहीं बहुत अधिक उन्नत हुआ होता।‘‘ किन्तु अब उनका काल (अंत) आ गया है और मैं उत्सुकतापूर्वक आशा करता हूँ कि इस धर्ममहासभा आयोजन के समादर में जो घंटियों का निनाद हुआ है वह सभी प्रकार की धर्मान्धता और सभी प्रकार की क्रूरताएँ चाहे वह तलवार अथवा कलम से हो तथा मनुष्य के बीच अनुदार विचारों पर, मृत्युकील साबित हो, क्यांेकि सभी मनुष्य एक ही महान लक्ष्य की ओर मार्गसंक्रमित कर रहे है।
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स्वामीजी के इस प्रथम और एक ही भाषण ने अनन्तकाल तक के लिए, भारतीय गौरवमय धार्मिक भावना एवं समस्त संसार के सुख तथा शांति के प्रशस्त मार्ग का मार्गदर्शन कर दिया है।
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देश के समक्ष आतंरिक एवं ब्राह्य समश्याये तथा उनका समाधान

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संघ सामान्य विषयो की चिन्ता नहीं करता, राष्ट्रीय विषयों की चिन्ता करता है। और दृढ़तापूर्वक समाधान हेतु प्रयत्न करता है। हमने 1857 की क्रांति से बहुत कुछ सीखा है। हमें नई दृष्टि, नूतन चिंतन प्राप्त हुआ है। इस क्रांति की असफलता के पीछे बाह्य कम आंतरिक चुनौतियाँ हमारे समक्ष अधिक थी, आज भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अभी कुछ ही समय पूर्व पदस्थ सरकार ने रामसेतु को तोड़ने का दुःसाहस किया, किन्तु जिस गति के और तत्परता के साथ हिन्दू समाज संगठित होकर आगे आया, यह सबने देखा और समझा है। आज देश के सामने अनेक समस्याएँ है। जैसे कश्मीर समस्या। सन् 1946 में शेख अब्दुल्ला द्वारा कश्मीर छोड़ों आन्दोलन, पंडित नेहरू को महाराजा हरिसिंह द्वारा कश्मीर आने से रोकना, फलस्वरूप नेहरू के मन में क्षोभ, कश्मीर पर हमला, असमंजस की स्थिति, परम पूज्य श्री गुरुजी द्वारा महाराजा हरिसिंह को भारत में विलय करने के लिए राजी किया गया। किन्तु कश्मीर में भारत के विरूद्ध अनेक स्वर जो उठ रहे हैं, उसके पीछे विदेशी पड़यंत्र स्पष्ट परिलक्षित होता है। विभिन्न आतंकवादी संगठनों का जन्म पाकिस्तान स्थित सरहद में हुआ है। लगातार आजादी के बाद से वह छद्म युद्ध लड़ रहा है। पाकिस्तान प्रत्यक्ष लड़ाई में जीत नहीं सकता इसका बोध उसे है। हमारी मातृभूमिं के मस्तक पर यह घाव नासूर बना हुआ है। हमें लगातार इसके विरूद्ध जनमत तैयार करना है। आज स्थिति यह है कि कश्मीर के 6 जिलो में हिन्दू नगण्य हो गये है, तथा अन्य जिलो से निकालने की तैयारी चल रही है। हजारों लाखों हिन्दू परिवार अपना सब छोड़कर दिल्ली में विस्थापितों का जीवन यापन कर रहे है। जो हमारे लिए अत्यन्त लज्जा का विषय है। धारा 370 में कारण अलगांव बढ़ा है। दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरूद्ध पं. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आन्दोलन चलाया तथा वे शहीद हुए। आज भी समाधान, सही दिशा में करने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। कश्मीर को सुरक्षित रखने का एकमात्र तरीका उसका भारतीय संघ में पूर्ण विलय है। अनुच्छेद 370 के साथ-साथ पृथक ध्वज पृथक संविधान को समाप्त करना आवश्यक है। पूर्वान्चल में सात प्रदेश है। 1813 से अंग्रजो द्वारा हिन्दू समाज के लोगों को ईसाई बनाने का प्रयत्न चल रहा है। फलस्वरूप आज वहाँ 80 प्रतिशत ईसाई बन चुके है। अंग्रेजो ने हमारी मूल व्यवस्थाओं पर भयंकर कुठाराघात किये है। जैसे कुँवारे लड़को को अलना सुलाने की व्यवस्था को बंद किया। तिरंदाजी को बंद कराया, गौमाँस खिलाकर परिवार में ही भेद खड़ा किया। छोटी लड़की पर सम्पत्ति की देखरेख का अधिकार होने के कारण, ईसाइयों का उससे विवाह करना एवं सम्पत्ति पर कब्जा करना। असम में जिस गति से विधर्मी बढ़ रहे है। बंगलादेश के घुसपैठिये असम प्रांत को बंगलादेश में मिलाना चाहते है। हमारे राष्ट्र के अन्दर घुसपैठ, जनसंख्या वृद्धि, मतान्तरण के द्वारा पूरब-पश्चिम को जोड़ने वाले भाग में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने का षड़यंत्र और प्रयत्न चल रहा है। जिससे उत्तर एवं दक्षिण भारत अलग-अलग भू-भाग में परिवर्तित हो जायेंगे। कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच ईसाइयों का राष्ट्र विरोधी प्रयत्न जोरों से चल रहा है। चीन की विस्तारवादी नीति अपने लिये संकट है। कैलाश मानसरोवर की यात्रा को रोकना, अरूणाचल पर दावा करना, तिब्बत को हड़पने का प्रसंग सर्वविदित है। भारत की निकटवर्ती सीमाओं में सड़के, हवाई पट्टियाँ, युद्धक सामग्री की भारी मात्रा में उपलब्धता चीन के कुत्सित मनोभावों का परिचायक है। अमेरिका की तरह चीन भी विस्तारवादी, नीति का अनुसरण कर रहा है। नेपाल में माओवादियों का वर्चस्व अपने राष्ट्र के लिए संकट है। माओवादियों ने भारत के दस प्रदेशांे में अपना जाल फैला दिया है। लोकतंत्र में उनका विश्वास नहीं है। नकारात्मक वातावरण निर्माण करना उनका सर्वोपरि ध्येय है। नेपाल से लेकर आन्ध्रप्रदेश तक अपना राज्य स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे है। इसी तरह राष्ट्र विरोधी कार्याे में वामपंथियों का हमेशा ही सहयोग रहा है।

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हमारी आंतरिक समस्याओं में जातिवाद, अस्पृश्यता तथा संचार माध्यमों द्वारा निर्ममतापूर्वक हमारे आदर्श जीवन मूल्यों पर जो आक्रमण हो रहे है; चिन्ता का विषय है। संगठन के अन्तर्गत हमने एक मॉडल खड़ा किया है। समरसता, एकात्मता, स्वदेशी वेषभूषा, भाषा आदि का भाव जिसे हमने संगठन में खड़ा किया है। इसका समूचा दर्शन समाज में जाना चाहिये। राष्ट्र की समस्त समस्याओं का समाधान लोक जागरण के माध्यम से ही संभव होगा। जनचेतना को झंकृत करने के निमित्त हमें रात-दिन योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की आवश्यकता है। हमें ध्यान देना पड़ेगा कि अपनी शाखा ही लोक जागरण के लिए साध्य और साधन है। संघ के बारे में स्वयं अधिकाधिक जाने, संघ साहित्य का नियमित स्वाध्याय करंे। अन्यो को प्रेरणा दें, सदैव सतर्क रहें, अन्यों को सतर्कता की प्रेरणा दें। युवा पीढ़ी को खड़ा करें। स्वाभाविक अवस्था में गति से काम करें। प्रतिपल राष्ट्र की आत्मा से तदाकार होकर समसामयिक घटनाओं, परिस्थितियों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखें। स्वयं, साथियों सहित समाधान खोजे, पहल करें।
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अन्य धर्म और भारतीय सम्प्रदायों का तुलनात्मक चिंतन

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किसी भी सम्प्रदाय के लिए एक प्रणेता, एक पूजा पद्धति, एक धर्मग्रंथ एवं एक प्रार्थना स्थल आवश्यक होता है। ईसाइयत के लिए ये ईसा मसी, बाइबिल एवं चर्च है तथा इस्लाम के लिए मोहम्मद साहब, कुरान शरीफ एवं मस्जिद है। ये दोनो मजहब है। हमारे यहाँ भी वैष्णव, कबीर पंथी दादू पंथी, आदि अनेक सम्प्रदाय है। ईश्वर के बारे में हमारी और उनकी मान्यताओं में भारी अन्तर है। एकेश्वरवाद में तो सभी का विश्वास है। किन्तु अन्य धर्मावलम्बियों की ईश्वर की धारणा केवल अल्लाह एवं गॉड तक सीमित है। राम और कृष्ण में उनका विश्वास नहीं है। हिन्दुत्व जीवन पद्धति में ईश्वर सर्वव्यापक है, जीव, जन्तुओं एवं वनस्पतियों सभी में ईश्वर का अंश हैं। कणकण में परमात्मा की दिव्यता की, अनुभूति का उद्घोष हमारे पूर्वजों ने किया है। भक्त प्रहलाद के द्वारा खम्बें में ईश्वर के कहने का प्रसंग हम सब को ज्ञात है। शास्त्रों में अनेक प्रसंग है। अन्य धर्म वाले मानते है कि केवल हमारे पंथ मे आने पर ही मुक्ति मिलती है। लेकिन भारतीय विचार के अनुसार किसी भी मार्ग से जाने पर व्यक्ति को मुक्ति मिल सकती है। लेकिन उसमें निष्ठा, समर्पण का भाव होना आवश्यक है। एकलव्य ने मिट्टी की मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या का अद्वितीय ज्ञान प्राप्त किया था। पिछले दिनों पोप ने कहा था कि अन्य सम्प्रदायों के माध्यम से मुक्ति नहीं मिल सकती। अन्य धर्मो की सेवाओं की सीमा केवल अपने पंथ तक ही सीमित है। दूसरे सम्प्रदाय के लिए उनका सेवा भाव नहीं होता है। नोबेल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा का सेवाभाव मात्र ईसाइयत तक ही सीमित था। हमने सम्पूर्ण जगत में परमात्मा का स्वरूप देखा है। सर्वे भवन्तु सुखिन......... का उद्घोष सम्पूर्ण विश्व के मल्याण की कामना लिये हुए है। आत्मवत सर्वभूतेषु जैसे अनेक शाश्वत वाक्यों का प्रवक्ता है हमारा धर्म। समूची दुनियाँ को एक नई दिशा नया चिंतन, हमारी संस्कृति ने ही प्रदान किया है।
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अन्य धर्म वालों ने अपने मजहब के अनुयायी एवं विरोधियों के रूप में सम्पूणर्् विश्व को दो भागों में बांटा है लेकिन हमारा भाव तो वसुधैव कुटुम्बकम का भाव है। हमारे यहाँ तो जीव जन्तुओं के प्रति भी करूणा का भाव है। आप सबको विदित है। संत रकनाथ एक बार नदी में स्नान कर रहे थे। एक बिच्छू पानी में बह रहा था, उसे बार-बार बचा रहे थे, और वह काट रहा था। काटने पर भी उसे बचाने का प्रयास करना एक अद्भुत उदाहरण है। आपको विदित ही है। एक बैल को डण्डे से मारने पर स्वामीं रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर निशान पड़ने का उदाहरण आश्चर्य जनक है। अन्य मजहब की मान्यताओं को हमने कभी भी गलत नहीं बताया। जहाँ इसाई और मूसलमान गये वहाँ की मान्यताओं को उन्होने समाप्त किया। भारत में विदेशी आक्रांता बनकर जब-जब मुसलमान आये उन्होने प्रमुख तीर्थ स्थानों के मंदिरों को तोड़ा मूर्तियो को तोड़ा हमारे मान बिन्दुओं के प्रतिकों को खण्डित किया। इसी कालखण्ड में आपको ज्ञात है अफगानिस्तान में बामियान की बुद्ध मूर्तियों को तोड़ा गया। बख्तमार खिलजी के द्वारा नालन्दा विश्व विद्यालय के पुस्तकालय में आग लगाई गई, जिसमें समूचे विश्व को मार्गदर्शन प्रदान करने वाला साहित्य था, जो महिनों तक जलता रहा। हिन्दू चिन्तन की आलोचना करने वालों को कभी भी हमने दण्डित नहीं किया। आपको ज्ञात है। पश्चिम में गैलिलियों को मीनार से गिराने का उदाहरण। हमारी नीति तोः-
‘‘निन्दक नियरे राखिये ..................‘‘ वाली रही है।
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अपने पंथ की संख्या बढ़ाने के लिए ईसाईयों ने क्रूसेड़ तथा मुसलमानों ने जेहाद किये। हमारे लोग विश्व में सेना लेकर नहीं बल्कि प्रेम का संदेश लेकर गये। जर्मनी की एक पत्रिका ने एक निष्कर्ष निकाला है कि भारत ने पिछले 10 हजार वर्षो में कभी मतान्तरण नहीं किया, एक भी हत्या नहीं की एवं किसी भी देश पर हमला नहीं किया। संघमित्रा एवं महेन्द्र का बाहर देशों में जाना सच्चे अर्थो में विश्व मानवता को विश्व बन्धुत्व का पावन संदेश देना था। विधर्मियों का प्रकृति को नष्ट करने एवं उपयोग करने में विश्वास है। लेकिन हम समन्वय करते है। हमने अपनी शाश्वत धारा को नहीं छोड़ा एवं उसमें युगानुकूल परिवर्तन भी करते चले गये। एक दिन निश्चित रूप से पशुबल परास्त होगा। सामाजिक समरसता के लिए सम्प्रदाय की सीमाओं को तोड़कर हमें अपना कर्तव्य निभाना होगा। हमें भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण जगत के कल्याण के लियें अपने कर्तव्य का निर्वहन करना है।
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हिन्दू होने पर गर्व क्यों ?

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सन् 1857 की क्रांति में पराधीनता से मुक्त होने के असफल प्रयास से समाज के मन में ग्लानी का भाव आया। प्रबुद्ध वर्ग में हिन्दुत्व के बारे में हीनता का बोध उत्पन्न हुआ। मुझे गधा कह लो, हिन्दू मत कहो। इस तरह के नकारात्मक भाव की उत्पत्ति हुई थी। इस विषम परिस्थति में स्वामीं विवेकानन्द ने गौरव के भाव को जागृत किया तथा हिन्दू समाज में नये जोश और उत्साह का संचार किया। अपने विस्मृत स्वाभिमान को झकझोरने का कार्य किया। राष्ट्र धर्म एवं संस्कृति की पताका सन् 1893 में शिकागों में सर्वधर्मसम्मेलन में फहराई गई। समूची दुनिया का ध्यान भारतीय संस्कृति की ओर खींचने में सफल हुए। स्वामीजी का कथन है कि ‘‘जब कोई अपने पूर्वजों पर ग्लानी महसूस करें तो समझना चाहिए उसका अंत आ गया है।‘‘ स्वामीजी ने राष्ट्र.धर्म.संस्कृति के प्रति गौरवपूर्ण भाव का जागरण कर हिन्दुत्व को गौरवान्वित किया। इसी बीच सन् 1925 को परम पूजनीय डॉ. साहब के नेतृत्व मार्गदर्शन में ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ‘‘ की स्थापना भी इसी कड़ी में एक चरण था। सन् 2002 में राष्ट्र जागरण का ध्येय वाक्य था, ‘‘गर्व से कहों हम हिन्दू है।‘‘ भारत दुनिया का सबसे प्राचीनतम देश हैं। भारतीय हिन्दू संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीनतम और अद्भुत विज्ञान सम्मत संस्कृति है। अपने लिए गौरव का विषय है कि शाश्वत ज्ञान के रूप में हमारे पास वेद है। वेदों में सृष्टि रचना से लेकर अन्यान्य विषयों का लौकिक और पारलौकिक ज्ञान का भंडार भरा हुआ है। इन वेदों के माध्यम से हम अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय विरासत का बोध सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद हमारे पास है। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारी संस्कृति विश्व का प्राण है। हिन्दू धर्म के बाद अन्य धर्म प्रकाश में आये। ध्यान से देखने समझने पर ज्ञात होता है कि मूल अवधारना वेदो से ही प्राप्त करके अन्य धर्मग्रन्थों का निर्माण हुआ। अन्य धर्म ग्रन्थो का उद्गम स्थल वेद ही है। यह प्रतीत होता है कि शाश्वत.सनातन ज्ञान के रूप में परमात्मा ने हमें ज्ञान स्वरूप वेद प्रदान किये है। अपने ही पूर्वजों द्वारा सत्य की खोज एवं उसका प्रचार.प्रसार सारी दुनिया में किया है। सारी दुनिया को कपड़े पहनना और मानवीय मूल्यों का ज्ञान हिन्दुस्तान ने ही सिखाया है। सम्पूर्ण विश्व को अपना मानने का भाव ‘‘कृणवन्तो विश्वमार्यम्‘‘ हमारी संस्कृति ने प्रदान किया है। विश्व पटल पर जो भी दिखाई देता है वह सब कुछ वेदों की कृपा से ही प्राप्त किया हुआ है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं किया जाना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व को चरित्र की शिक्षा सीखने का आव्हान हमने किया है।
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‘‘एतद्देश्य प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं.स्वं चरित्रं शिक्षेस् पृथिव्यां सर्व मानवाः‘‘
समुचा वसुंधरा परिवार हमारा है। यह उदात्त भाव हमारे हिन्दू समाज ने विश्व को दिया है। हिन्दू धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सूत्रों से गूँथा हुआ है। एक.एक सूत्र अद्भुत् विलक्षणता लिए हुए है। इनका साक्षात्कार व्यक्ति को लघु से महान् और महान से महानतम बनने की प्रेरणा प्रदान करता है। सच्चे अर्थो में मानव जाति की कर्तव्य संहिता है, हिन्दू धर्म। समूची दुनिया की भौगोलिक और सांस्कृतिक रचना को देखने पर ज्ञात होता है कि आज भी विश्व में सर्वत्र हिन्दुत्व के अवशेष फैले हुए है, तथा हिन्दुत्व के प्रति श्रद्धा भाव है।
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आपको विदित है डॉ. वाकणकर का अमेरिका में रेड इंडियनों के साथ यज्ञ करने का प्रसंग? डॉ. रघुवीर का साइबेरिया का यात्रा प्रसंग? गंगाजल मांगने का उदाहरण? सिकंदर के गुरू का भारत से गीता, गंगाजल और एक गुरु लाने के लिए कहना? विश्व में अपने प्रभाव का प्रमाण है।
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हमारे धर्म ने समूची मानवजाति के लिए चार पुरुषार्थों क्रमशः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विवरण प्रस्तुत किया है। धर्म और मोक्ष के बीच विवेकपूर्वक अर्जन तथा उपभोग करने की दृष्टि प्रदान की है। संसार मंे जो कुछ भी है, वह परमात्मा का है। उसका त्यागपूर्वक उपभोग करने की शिक्षा हमारे धर्म ने ही दी है।
‘‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।‘
तेन त्यक्तेन् भुंजीया मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।‘‘
विश्व के चार प्रतिशत अमेरिका वासी, चालीस प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करते है। इसी साम्राज्यवाद के कारण विश्व में चारों ओर अशांति दिखाई पड़ रही है। इस घोर अशांति के जनक भोगवादी संस्कृति के उपासक ही है।
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हमने विश्व को चार आश्रम क्रमशः ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के रूप में अत्यंत मंगलकारी व्यवस्था का बोध कराया है। इन आश्रमों के अनुरूप जीवन यापन करने से समाज एवं राष्ट्र की सर्वाेपरी सेवा की जा सकती है। समाज रचना का यह सुन्दर स्वरूप अन्य धर्माे में दृष्टिगोचर नहीं होता चूँकि इनकी विस्तृत व्याख्या करना यहाँ पर प्रासंगिक नहीं है। समाज और राष्ट्र को सुव्यवस्थित संचालित करने के लिए गुण, कर्मोे के अनुरूप चार वर्णो में विभाजित किया गया है। वर्णव्यवस्था और समाज रचना अपनी विशेषता है। ‘‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं, गुणकर्म विभागशः।‘‘ हम समाज जीवन की सभी विधाओ में श्रेष्ठ थे। यथा विज्ञान, विमान शास्त्र, नौका यान, रसायन शास्त्र, और गणित जैसे सभी विषयों में और व्यापार और वाणिज्य में भी दुनिया में फैले हुए है। झारखण्ड की जनजातियों द्वारा लौह निर्माण की कला को जानना, हमारे लिए अत्यन्त गौरव का विषय है।
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सन् 2011 से युग परिवर्तन की घोषणा परम् पूज्यनीय सरसंघचालक एवं पं. आचार्य श्रीराम शर्मा के द्वारा की गई है। वहीं डॉ. कलाम के अनुसार सन् 2020 में भारत पुनः विश्व गुरु बनेगा। हम पुनः शक्तिशाली बने तथा विश्व का मार्गदर्शन करें।
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परमपूज्यनीय सर संघचालक, संघ संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मतलब है- राष्ट्र की सेवा करने के लिए स्वयं की प्रेरणा से आगे बढ़चढ़कर राष्ट्र कार्य करने हेतु समर्पित लोगों द्वारा स्थापित संघ। हमारा यह प्यारा हिन्दुस्तान, पवित्र हिन्दू राष्ट्र हमारी कर्तव्य भूमि होने के कारण हम लोगों ने अपने राष्ट्रीय हित की रक्षा के लिए इस संघ को इस देश में स्थापित किया है। हम संघ परिवार के द्वारा राष्ट्र की हर दृष्टि से, हर प्रकार से सेवा करना चाहते है। अपने राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति होते हुए देखना चाहते है।
हमें सर्वप्रथम चिंतन करना चाहिए कि राष्ट्र का अर्थ क्या होता है? किसी घने जंगल को, जलहीन मरुस्थल को या निर्जन भू.भाग को राष्ट्र नहीं कहते। जिस भू.भाग पर एक जाति के, विशेष धर्म के, परम्परा वाले, विशेष विचारधारा वाले और विशिष्ट गौरवशाली इतिहास वाले लोग एकत्रित रहते हैं; वह भू.भाग राष्ट्र माना जाता है।
संघ को नया झण्डा खड़ा नहीं करना है। भगवा ध्वज का निर्माण संघ ने नहीं किया। संघ ने तो उसी परम.पवित्र भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज के रूप मंे स्वीकार किया है जो कि हजारों वर्षाें से राष्ट्र और धर्म का ध्वज था। भगवा ध्वज के पीछे इतिहास है। परम्परा है। वह हिन्दू संस्कृति का द्योतक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू राष्ट्र की रक्षा के निमित्त हुआ है। जो जो वस्तुएँ इस संस्कृति की प्रतीक है, उसकी संघ रक्षा करेगा। भगवा ध्वज हिन्दू धर्म और हिन्दू राष्ट्र का प्रतीक होने के कारण उसे राष्ट्र ध्वज मानना संघ का परम् कर्तव्य है।
हिन्दू समाज में पैदा होने के कारण इस संगठन के कार्य का दायित्व हमारा है। जिसे हमें पूरी तरह से निभाना होगा। यह जिम्मेदारी दिन.प्रतिदिन अधिकाधिक बढ़ती ही चली जा रही है। हमारा कार्यक्षेत्र अत्यधिक विशाल है। हमारा दृष्टिकोण भी विशाल होना चाहिए। हमें ऐसा लगना चाहिए कि समूचा भारतवर्ष हमारा है। संघ का कार्य है, हिन्दू समाज को सर्वसमर्थ बनाना। हिन्दू समाज के कल्याण का अर्थ है, उसका स्वसंरक्षणमय होना। हमारे पूर्वजो ने, बुजुर्गो ने, जिस प्रकार समाज और संस्कृति की सेवा की, जो उच्च ध्येय हमारे सामने रखे और उनकी प्राप्ति के लिए दिन.रात प्रयत्न किये, उन्ही ध्येयों को उसी भांति हमें भी सिद्ध करना है। उनके अधूरे कार्यों को हमें दृढ़ता पूर्वक पूरे करने है। संघ का संस्कारों पर अत्यंत विश्वास है, जैसे संस्कार वैसी ही वृत्ति बनती है और एक ही वृत्ति के अनेको लोगो के एकत्रित होने से संगठन के लिए पोषक वातावरण निर्मित होता है। संघ का कार्य एवं संघ की विचारधारा. हमारा कोई नया आविष्कार नहीं है। संघ ने तो अपने परमपवित्र सनातन हिन्दू धर्म, अपनी पुरातन संस्कृति, अपने स्वयंसिद्ध हिन्दू राष्ट्र और अनादिकाल से प्रचलित परमपवित्र भगवा ध्वज को यथावत् आप लोगो के सामने रखा है। संघ ने किसी व्यक्ति विशेष को अपने गुरु स्थान पर न रखकर परम्पवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु माना है। जिसमें हमारा इतिहास, परम्परा, राष्ट्र के स्वार्थ.त्याग इतना ही राष्ट्रीयत्व के सभी मूल तत्वों का समन्वय हुआ है। इस अटल और उदात्त ध्वज से हमें जो स्फूर्ति प्राप्त होती है, वह अन्य किसी भी मानवीय विभूति से प्राप्त होने वाली स्फूर्ति की अपेक्षा सर्वश्रेष्ठ है। आज हिन्दू समाज दुर्बल है और हिंसक वृत्ति के लोग कमजोर समाज की कौड़ीभर भी परवाह नहीं करते। इसलिए यदि हम अहिंसा मंत्र का घूँट हिंसात्मक वृत्ति के लोगांे के गले उतारना चाहते हैं तो हमें इतना सामर्थशाली बनना चाहिए कि जिससे उन लोगों पर हमारे उपदेश का परिणाम हो और यदि हमारी यह इच्छा है कि हिन्दुस्तान में अहिंसा का सामाज्य फैले तो हिन्दू समाज की दुर्बलताओं को नष्ट कर उसे बलशाली बनाना नितांत आवश्यक है। हम सभी भाई संघ के भिन्न-भिन्न घटक है। संघ पूर्णरूप से हम सबका है। जो सम्बंध अपने शरीर और उसके अंगो के बीच है, वही सम्बंध संघ में और हममें है। शरीर के सारे घटकों का विकास एक सा और एक ही समय होता जाये तभी शरीर समर्थ बनकर सुघड़ प्रतीत होने लगता है। वास्तविक एकता उन्हीं लोगो की हो सकती है जो की समान आचार.विचार वाले, समान परम्परा वाले, समान संस्कृति वाले तथा समान ध्येययुक्त होते हैं। हम लोगों में चाहे जितने ऊपरी मतभेद दिखाई दें, परन्तु सारे हिन्दू तत्वतः एक राष्ट्र है। हमारी धमनियों में एक सा लहू बह रहा है। जो नवीन स्वयंसेवक आवें, उनमें ध्येय निष्ठा उत्पन्न करनी चाहिए और पुरानों की ध्येय निष्ठा को और पॉलिस देकर अधिकतम निर्मल बनाते जाना चाहिए। यह प्रत्येक स्वयंसेवक का परम् कर्तव्य है। प्रशंसा से फूलकर कुप्पा न होते हुए और अधिक लगन से कार्य में संलग्न हो जाना चाहिए। संघ का स्वयंसेवक चाहे जहां रहे उसे सदा संघ कार्य के लिए प्राणपण से चेष्टा जारी रखनी चाहिए। संघ के तत्व का प्रचार करके संघ की मजबूती का प्रयत्न सदैव ही करते रहना चाहिए। जिसे अपने एवं अपने देशबंधुओं के सिवाय और किसी का मोह नहीं, अपने धर्म और धर्मकार्य के अतिरिक्त कोई व्यवसाय नहीं, अपने हिन्दू धर्म की अभिवृद्धि होकर हिन्दू राष्ट्र के प्रताप सूर्य को तेजस्वी रखने के अतिरिक्त अन्य कोई स्वार्थ.लालसा नहीं, उसके हृदय में भय, चिन्ता या निरुत्साह पैदा करने का सामर्थ संसार भर में तो हो ही नहीं सकता।
संकलित- 1. राष्ट्रीयत्व, २. शाखा स्थापना
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समाज जागरण की प्रक्रिया

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आज हम सांस्कृतिक संक्रमण के ऐतिहासिक दौर से गुजर रहे है, भौतिकवाद अपनी चरम सीमा पर है, दिशाहीनता, दुष्चिंतन, भटकाव, दुष्प्रवृत्तियॉं, आंतकवाद, जातिवाद, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, जनसंख्या वृद्धि, धर्मांन्तरण, पश्चिमी कुसभ्यता का भीषण आक्रमण राष्ट्र की सृजनात्मकता को घुन की तरह खोखला करते जा रहे है। उस पर नशा,बेरोजगारी हमारी राष्ट्रीय प्राणचेतना का शोषण कर रही है। ऐसे भीषण संकट के दौर में राष्ट्र की युवा तरूणाई को हिन्दू समाज को आत्मबोध एवं अपने सांस्कृतिक गौरव से परिचित कराना आवश्यक है। विश्व में जितने भी जीवंत इतिहास है, वे तरूणाई की रचना है। संस्कृति की दुर्दशा से मर्माहत तारूण्य ही ’’ निशिचर हीन करहुॅ मही ’’ का संकल्प बन बैठा है। गीता के तारूण्य ने पार्थ के तारूण्य को झकझोरा तो महाभारत की विजयश्री वरेण्यं हो गई। मानवीय करूणा के तारूण्य ने राजकुमार सिद्धार्थ को भगवान बुद्ध बना दिया। गुरू गोविन्दसिंह जी का तारूण्य आतताईयों के लिए चुनौती बन गया। जब तारूण्य तपा तो आत्मजयी भगवान महावीर स्वामी बन गया। दयानंद, विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ की तरूणाई राष्ट्र की सुप्त कुण्डलीनी जागरण का उद्घोष बन बैठी। शहीदांे की बलिदानी तरूणाई से ही भारत माता की परतन्त्रता की जंजीर चटक गई। परम पूज्यनीय डॉ. हेडगेवार जी की अंतर वेदना की तरूणाई ने विराट संघ परिवार की आधार शिला रख दी । आज विश्व विभिषिकाओं का समाधान सिर्फ संघ शाखाओं की तरूणाई को निहार रहा है, राष्ट्र के जाज्ज्वल्य तारूण्य को भारत माता पुकार रही है। वस्तुतः राष्ट्र का भविष्य, स्वयं सेवकों के हाथ में ही है। स्वयं सेवक जिधर चल पडेंगे, समूचा राष्ट्र भी उसी दिशा में चल पडेगा। राष्ट्रवादी विचारकों स्वयं सेवकों और उनकी गतिविधियों का सही नियोजन आज की प्रथम आवश्यकता है। इतिहास साक्षी है।
संघ के स्वयं सेवकों की बौद्धिक मेधाशक्ति साहस, शौर्य और अदम्य ऊर्जा ने संकल्प बल के सहारे सदैव नये कार्य के कीर्तिमान स्थापित किये है। संघ की संघीय शक्ति ने समूची दुनिया के समक्ष त्याग और बलिदान के अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत किये है। शिविरो के माध्यम से, संघ शिक्षा वर्गों के माध्यम से या संघ की शाखाओं में जो भी गतिविधियॉ चलती है, उसमें भारतीय समाज को, राष्ट्रीय चेतना को राष्ट्रभक्ति के रूप में निखारने की प्रक्रिया मात्र है। संघ शाखा राष्ट्रव्यापी, आंदोलन और अभियान का रूप ग्रहण कर सकें,इस दिशा में हम सबकों तन, मन, धन की आहूतियॉ देने हेतु सदैव तत्पर रहने का प्रयास करना चाहिए। संघ शक्ति, राष्ट्रशक्ति बनकर राष्ट्र को समृद्धि, उन्नति एवं प्रगति के मार्ग पर ले जा सकती है। किसी भी राष्ट्र का विकास बहुसंख्यक भीड़ के सहारे नही, बल्कि ऊर्जावान, सेवाभावी मूर्धन्य नागरिकों के सहारे होता है। वरिष्ठ वे हैं जो अपनी समस्या का समाधान आप कर सकें, साथ ही बचे हुई पराक्रम का उपयोग दूसरों को उबारने में कर सकें। उनका कृतित्व और व्यक्तित्व असंख्यों में प्राण संचरण कर सके। संघ शिविर राष्ट्र के कर्णधारों के नैतिक, बौद्धिक सांस्कृतिक जागरण का रचनात्मक प्रयास होते है।
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