‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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मालेगांव ब्लास्ट केस: न्यायिक बरी, पर जिम्मेदारी कौन तय करेगा?

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31 जुलाई 2025 को विशेष NIA अदालत ने मालेगांव ब्लास्ट केस (Special Case No. 1 of 2009) के सातों आरोपियों को बरी कर दिया। 17 वर्षों तक चले इस मुकदमे के बाद अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष किसी भी आरोप को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा। यह मात्र “बरी होने का निर्णय” नहीं है, बल्कि भारतीय जांच एजेंसियों की निष्पक्षता, पुलिस की कस्टोडियल हिंसा और हमारे न्यायिक तंत्र की धीमी गति पर गहरी चोट है।
यह केस केवल आरोपियों की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की संस्थागत विफलता का प्रतीक है।

जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर प्रश्न:
भारत का आपराधिक न्याय तंत्र इस धारणा पर टिका है कि पुलिस और जांच एजेंसियां निष्पक्ष रहकर सत्य की खोज करेंगी। परंतु इस मामले में—
  • नार्को रिपोर्ट दबाना,
  • FSL रिपोर्ट पेश न करना,
  • गवाहों को प्रभावित करना,
और कथित कस्टोडियल टॉर्चर द्वारा नाम उगलवाने का प्रयास—
ये सभी घटनाएं इंगित करती हैं कि एजेंसियां निष्पक्षता की कसौटी पर खरा नहीं उतरीं।

सुप्रीम कोर्ट ने State of Bihar v. P.P. Sharma (1992 Supp (1) SCC 222) में कहा था कि “जांच का उद्देश्य अभियुक्त को दोषी सिद्ध करना नहीं, बल्कि सत्य की खोज करना है।” मालेगांव केस में यह मूलभूत सिद्धांत पूरी तरह तिरोहित हुआ।

राजनीतिक प्रभाव और गुटबाजी की आशंका:

  • रमेश उपाध्याय और समीर कुलकर्णी के आरोप कि उनसे RSS, साध्वी प्रज्ञा, योगी आदित्यनाथ, श्रीश्री रविशंकर आदि के नाम लेने को कहा गया—गंभीर सवाल खड़े करते हैं।
  • यह परिदृश्य दर्शाता है कि जांच निष्पक्ष आपराधिक प्रक्रिया न होकर राजनीतिक नैरेटिव बनाने का उपकरण बन गई थी।
  • संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 यह गारंटी देते हैं कि सभी नागरिक समानता और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किए जाएंगे। लेकिन यदि जांच राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हो तो यह गारंटी अर्थहीन हो जाती है।

मानवाधिकार उल्लंघन:

  • आरोपियों के बयानों के अनुसार—
  • दांत तोड़ना,
  • निजी अंगों पर इलेक्ट्रिक शॉक,
  • धार्मिक प्रतीकों और ग्रंथों का अपमान,
  • पत्नी-बेटी को अपमानित करने और बलात्कार की धमकी,
  • जबरन मांस खिलाना—
  • ये सभी कार्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (Right to Life with Dignity) का खुला उल्लंघन हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने D.K. Basu v. State of West Bengal (1997 1 SCC 416) में कस्टोडियल टॉर्चर को “मानवाधिकारों का सबसे बड़ा अपमान” कहा था और विस्तृत दिशानिर्देश दिए थे। यदि इन दिशानिर्देशों का पालन किया जाता, तो शायद यह त्रासदी टल जाती।

भारत ने 1997 में United Nations Convention Against Torture (UNCAT) पर हस्ताक्षर तो किए परंतु आज तक इसे ratify नहीं किया। फलस्वरूप, कस्टोडियल टॉर्चर पर कठोर दंडात्मक कानून आज भी अनुपस्थित है। मालेगांव केस इस lacuna को उजागर करता है।

न्यायालय की दृष्टि:

(क) बॉम्बे हाईकोर्ट (2017)
  • साध्वी प्रज्ञा को ज़मानत दी गई।
  • कोर्ट ने माना कि आरोपों को सिद्ध करने योग्य पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं।

(ख) सर्वोच्च न्यायालय (2017)
  • कर्नल पुरोहित को जमानत देते हुए कहा —
  • “न्यायिक प्रक्रिया केवल अनंतकाल तक किसी को जेल में रखने का औजार नहीं हो सकती। अभियोजन को आरोप सिद्ध करने के लिए ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे।”

(ग) विशेष NIA न्यायालय (2025)
  • Special Case No. 1/2009, Judgment dated 31.07.2025 में 7 आरोपियों को बरी कर दिया गया।
  • न्यायालय ने कहा कि अभियोजन आरोप साबित करने में असफल रहा और संदेह का लाभ आरोपियों को दिया जाना आवश्यक है।

निर्दोष नागरिकों की क्षतिपूर्ति:

  • 17 वर्ष तक निर्दोष व्यक्ति आतंकवादी होने का कलंक झेलते रहे। सामाजिक बहिष्कार, परिवार की प्रतिष्ठा का ह्रास, करियर का विनाश और मानसिक-शारीरिक यातना—इन सबकी भरपाई कौन करेगा?
  • सुप्रीम कोर्ट ने Rudal Shah v. State of Bihar (1983 AIR 1086) और Nilabati Behera v. State of Orissa (1993 2 SCC 746) में कहा था कि “मुआवजा, संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन का स्वाभाविक उपचार है।”
  • आज आवश्यकता है कि भारत में “Wrongful Prosecution Compensation Law” लाया जाए, जैसा कि ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में मौजूद है। यह कानून सुनिश्चित करे कि—
  • निर्दोष साबित होने वाले व्यक्तियों को आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास मिले।
  • दोषपूर्ण जांच करने वाले अधिकारियों की व्यक्तिगत जवाबदेही तय हो।

राजनीतिक फायदे बनाम राष्ट्रीय नुकसान

किसी भी लोकतंत्र का आधार यह है कि राज्य सत्ता कानून के शासन (Rule of Law) से संचालित होगी, न कि राजनीतिक अवसरवाद से। यदि जांच एजेंसियां राजनीतिक लाभ हेतु कार्य करेंगी तो—
  • असली अपराधी छूट जाएंगे,
  • निर्दोष बर्बाद होंगे,
  • और जनता का न्यायपालिका व पुलिस पर विश्वास टूटेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने Vineet Narain v. Union of India (1998 1 SCC 226) में CBI और अन्य जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता को संरक्षित करने का निर्देश दिया था। दुर्भाग्य से, उस भावना को आज तक पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया।

समाधान और सुझाव:

  • स्वतंत्र जांच आयोग (Independent Investigative Commission) – ATS, NIA और CBI जैसी एजेंसियों को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त कर, संसदीय निगरानी में लाया जाए।
  • कस्टोडियल टॉर्चर विरोधी कानून – UNCAT की ratification और घरेलू कानून बनाकर पुलिस अत्याचार पर कठोर दंड तय किया जाए।
  • मुआवज़ा कानून – Wrongful Prosecution Compensation Act लाकर निर्दोषों को पुनर्वास मिले।
  • पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही – दोषपूर्ण जांच करने वाले अधिकारियों की पेंशन व पदोन्नति रोकी जाए और आपराधिक कार्रवाई हो।
  • फास्ट-ट्रैक कोर्ट – आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में 2-3 वर्ष की अधिकतम समयसीमा तय की जाए।

अंततः

मालेगांव ब्लास्ट केस में आरोपियों की बरी होना केवल न्यायालय का आदेश नहीं है, यह भारतीय जांच प्रणाली की नैतिक पराजय है।

यह प्रकरण हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल चुनाव से नहीं, बल्कि न्याय की निष्पक्षता और मानवाधिकारों की रक्षा से जीवित रहता है। यदि निर्दोष 17 वर्ष तक “आतंकवादी” कहलाकर जीते हैं, तो यह न केवल उनके साथ अन्याय है बल्कि राष्ट्र के साथ भी।

अब समय है कि संसद, न्यायपालिका और नागरिक समाज मिलकर ऐसे ढाँचागत सुधार करें, ताकि भविष्य में कोई भी नागरिक राज्य की शक्ति का शिकार न बने।

📝 लेखक: कृष्णा बारस्कर, अधिवक्ता, बैतूल
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‘‘एक ढाबा ऐसा भी...’’

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जहाँ सेवा धर्म है, और ‘सीताराम’ ही मूल्य

यात्रा काल: 20 जुलाई 2025 से 23 जुलाई 2025
मार्ग: पचमढ़ी → बागेश्वर धाम → खजुराहो → छतरपुर→ सागर 
साथी: मामा, भांजे, भांजी और भतीजे की धार्मिक टोली


21 जुलाई 2025 — जंगल की रात और विश्वास की रोशनी

हमारी यह यात्रा केवल एक धार्मिक भ्रमण नहीं थी, यह आत्मा की खोज थी।
उस दिन रात 11 बजे, जब हम छतरपुर से लगभग 22–23 किलोमीटर पहले एनएच-34 पर एक सघन वन क्षेत्र से गुजर रहे थे, तब लगा कि भक्ति की यह यात्रा अब एक परीक्षा में बदल रही है।

रात्रि के तीसरे प्रहर में, अंधेरा सघन और रास्ते अनजान थे। परिवार साथ था, थकावट और भूख भी साथ थी, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न था —
“अब कहाँ रुकें?”

छोटे भाई ने कुछ बंद हो चुके ढाबों पर गाड़ी रोककर पूछा, पर कोई सहारा नहीं मिला। तभी एक वृद्ध ढाबेवाले ने सलाह दी —

“बेटा, आगे ‘शिव ढाबा’ है… वहाँ ज़रूर ठहराव मिलेगा। वो 24 घंटे खुला रहता है।”

यह नाम जैसे अंधेरे में एक दीपक था। कुछ दूर चलते ही, वन क्षेत्र के बीच एक चमकता स्थान मिला —
शिव ढाबा।


भोजन नहीं, श्रद्धा का प्रसाद

हमारे छोटे से निवेदन पर ढाबे के संचालक ने हमें सद्पुरुष जान सहज ही
पहले भोजन, फिर सुरक्षित विश्राम की अनुमति दे दी।
न तो हमने उनसे ढाबे के बारे में जानकारी ली, न ही उन्हे हमसे कोई गहन पूछताछ की आवश्यकता पड़ी।

रात्रि के उस समय में थाली में परोसा गया भोजन जैसे प्रसाद लग रहा था —
गर्म, स्वादिष्ट, पूरी तरह सात्विक, और आत्मीयता से भरा हुआ।

लेकिन असली चमत्कार तो इसके बाद शुरू हुआ...


राम नाम की पुस्तक — सेवा का मूल्य नहीं, पुण्य का अवसर

अगले दिन सुबह चाय-नाश्ते के बाद जब प्रस्थान का समय आया, तो मैंने उनसे उनका विज़िटिंग कार्ड चाहा।
तब उन्होंने हमें एक छोटी सी कॉपी दी जिसमें 2000 बार ‘सीताराम’ लिखना था।

संचालक जी ने मुस्कुराते हुए कहा —

“आप जितनी पुस्तकें राम नाम लिखी हुई वापस करेंगे, उतनी बार निःशुल्क भोजन कर सकते हैं — आज, कल, जब चाहें।”

हम सब इस भाव से अभिभूत हो गए।
हम सक्षम थे, इसलिए हमने भोजन का भुगतान किया, लेकिन ‘सीताराम’ की पुस्तक अवश्य ली।
मन में यह भावना थी कि सेवा का सम्मान भी सेवा है, और राम नाम लेखन एक ऐसा पुण्य कार्य है जो न केवल थाली भरता है, बल्कि आत्मा भी।

हमने उनसे पूछा —
“अगर कोई रोज़ यहाँ आकर लिखे और भोजन करे तो?”
संचालक जी ने सहज भाव से उत्तर दिया —
“कोई जब तक चाहे तब तक सीताराम-थाली रूपी प्रसाद ले सकता है — सेवा की कोई सीमा नहीं।”

उन्होंने हमें कई पुस्तिकाएं भी दीं, ताकि जब भी हम आएं या घर पर समय निकालें, राम नाम में मन लगा सकें।


22 जुलाई 2025 — वापसी पर फिर वही अनुभव

खजुराहो और बागेश्वर धाम की यात्रा पूर्ण कर जब हम वापसी में फिर उसी मार्ग से गुज़रे,
तो बिना किसी योजना के मन ने निर्णय लिया —

“फिर से शिव ढाबे चलते हैं।”

और जैसे समय थम गया हो। वहाँ पहुँचते ही वही स्नेह, वही आत्मीयता, वही सम्मान
एक बार फिर गर्मागर्म भोजन, विश्राम की व्यवस्था, सुबह की चाय और बिस्किट — सब कुछ पूर्ववत।

यह अनुभव हमें यह सिखा गया कि सच्ची सेवा व्यवसाय नहीं होती, वह संस्कार होती है।
शिव ढाबा केवल पेट नहीं भरता — वह संस्कार, श्रद्धा और सुरक्षा देता है।
और सबसे बड़ी बात —

यह ढाबा दिन-रात, 24 घंटे खुला रहता है, हर मुसाफ़िर की सेवा के लिए हर समय तत्पर।


एक सीख, एक स्मृति, एक प्रेरणा

लोग अक्सर कहते हैं —

“भगवान खुद नहीं आते, पर मदद ज़रूर भेजते हैं।”
शिव ढाबा वही मदद था — एक प्रतीक, कि जब रास्ता कठिन हो, जंगल गहरा हो,
तो ईश्वर किसी विशाल राजा बुंदेला जी को हमारे लिए खड़ा कर देते हैं।

यह कोई साधारण ढाबा नहीं था।
यह एक जीवंत तीर्थ है, जहाँ सीताराम लेखन आपकी थाली है, और सेवा ही प्रसाद


हमारा प्रण

हम घर लौट आए हैं, लेकिन सीताराम की पुस्तकें हमारे पास हैं।
अब राम नाम लिखते हुए मन हर दिन उसी शिव ढाबा की याद में झूम उठता है
हमारे लिए यह अनुभव अब केवल याद नहीं, एक आदर्श बन चुका है।

यदि आप कभी छतरपुर की ओर निकलें, तो

“शिव ढाबा” जरूर जाएं —

न केवल भोजन के लिए, बल्कि यह देखने के लिए कि आज भी इस युग में सेवा, श्रद्धा और आत्मीयता जीवित हैं।



- कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता), बैतूल
(21-22 जुलाई 2025 की स्मृतियों के साथ)


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मध्यकालीन भारत: आक्रांताओं का आक्रमण और हमारी सांस्कृतिक चेतना का संघर्ष

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इतिहास केवल अतीत की घटनाओं का संकलन नहीं होता — यह समाज की आत्मा की स्मृति है। विगत कुछ समय से भारत के स्कूली पाठ्यक्रमों में खासकर एनसीईआरटी की पुस्तकों में, मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के कृत्यों को लेकर जो बदलाव हुए हैं, वे एक महत्वपूर्ण बहस का विषय बन चुके हैं। क्या मंदिर विध्वंस, जनसंहार, और सांस्कृतिक आघात जैसे क्रत्य बच्चों को पढ़ाए जाने चाहिए? क्या यह "हिंदू भावनाओं को भड़काने" जैसा है या "ऐतिहासिक सच का सामना करना"? यह लेख इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देता है — तथ्य, साक्ष्य, और ऐतिहासिक दृष्टिकोण के साथ।

1. क्या इतिहास में क्रूरता को छिपाना चाहिए?
इतिहास में जो हुआ, वह हुआ — हम उसे बदल नहीं सकते।
भारत के मध्यकाल में महमूद ग़ज़नवी (1025), मोहम्मद ग़ोरी (1191), और खिलजियों, तुग़लकों, मुग़लों द्वारा असंख्य मंदिरों का विध्वंस, हिंदू राजाओं का कत्लेआम, महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाना, धार्मिक पहचान को मिटाने का प्रयास, जैसे कई प्रमाणित तथ्य हैं।

सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ, मथुरा के केशवदेव मंदिर, विजयनगर के मंदिर, जैन और सिख तीर्थस्थलों पर हमले इतिहास की गोपनीयता में नहीं, मुग़ल दरबारों के फ़रमानों, विदेशी यात्रियों की रिपोर्टों, और लोक स्मृतियों में सुरक्षित हैं।

2. क्या ये आक्रमण धर्म के नाम पर थे?
महमूद ग़ज़नवी ने अपने हमले को ‘जिहाद’ कहा।
औरंगज़ेब ने काशी और मथुरा के मंदिर तोड़कर वहाँ मस्जिदें बनाईं।
मुग़ल फ़रमान स्पष्ट रूप से कहते हैं – “मूर्तिपूजा को नष्ट करना हमारा कर्तव्य है।”

ये घटनाएँ केवल सत्ता संघर्ष नहीं थीं — ये संस्कृति और धर्म पर सुनियोजित हमले थे।
और यह बताना ज़रूरी है ताकि अगली पीढ़ी को पता चले कि किस तरह संस्कृति की रक्षा की जाती है।

3. क्या सब मुस्लिम शासक क्रूर थे?
यहाँ एक विवेकपूर्ण संतुलन आवश्यक है।
अकबर ने अपने जीवन के शुरुआती दौर में चित्तौड़ पर हमला कर 30,000 नागरिकों का वध कराया — यह तथ्य अकबरनामा और एनसीईआरटी की नई पुस्तक में भी स्वीकार किया गया है।

परंतु —
बाद के वर्षों में अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता, जज़िया कर की समाप्ति, और राजपूतों से मैत्री की नीति अपनाई।
तानसेन, रहीम, अबुल फ़ज़ल जैसे विद्वान उसके दरबार में थे।

यह पढ़ाना आवश्यक है कि एक ही शासक में क्रूरता और सहिष्णुता, दोनों पहलू हो सकते हैं।
परंतु केवल एक पक्षीय "गंगा-जमुनी तहज़ीब" दिखाकर क्रूरता को सफेद नहीं किया जा सकता।

4. मुग़ल भारत के नहीं थे — पर क्या बन गए थे?
बाबर और हुमायूं मध्य एशिया से आए थे – यह सत्य है।
परंतु अकबर से लेकर बहादुर शाह ज़फ़र तक सभी मुग़ल शासक भारत में ही जन्मे, पले-बढ़े और यहीं मरे।

तो क्या वे “भारतीय” थे?
भारत की आत्मा से जुड़ना और भारतीय संस्कृति को आत्मसात करना, यह सच्चा भारतीयत्व है —
परंतु मुग़लों का बहुसंख्यक हिस्सा कभी हिंदू धर्म, परंपरा, पर्व, मंदिर या सनातन संस्कृति का संवाहक नहीं बना।
इसलिए सत्ता तो उन्होंने भारत पर की, पर आत्मा से वे भारतीय नहीं हुए।

5. क्या यह "इतिहास बदलना" है?
आज जब एनसीईआरटी की नई पुस्तक में इन तथ्यों को लाया गया, तो कई तथाकथित इतिहासकारों ने आरोप लगाया —
"सरकार इतिहास को तोड़-मरोड़कर, पूर्वाग्रह के साथ, हिन्दू मानसिकता को तुष्ट करने के लिए लिखवा रही है।"

लेकिन यह भूल जाते हैं कि इतिहास तथ्यों से चलता है, कल्पनाओं से नहीं।
यदि पहले के पाठ्यक्रमों में मंदिर विध्वंस या लूट का कोई ज़िक्र नहीं था, तो यह विकृति थी, संशोधन नहीं।

6. इतिहास पढ़ाया जाए — लेकिन क्यों?
ना तो नफ़रत फैलाने के लिए,
ना ही हीन भावना से ग्रसित करने के लिए,
बल्कि सांस्कृतिक चेतना और आत्म-सम्मान जगाने के लिए।

❝ जो समाज अपने अतीत के अत्याचार भूल जाता है, वह भविष्य में फिर गुलाम बनता है ❞
– स्वामी विवेकानंद

7. क्या मध्यकाल केवल “अंधकारमय युग” था?
यह कहना भी आधे सच का प्रचार होगा।

उसी युग में:
रामचरितमानस की रचना हुई,
भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था,
संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, रहीम, जायसी, सूरदास जैसे संत–कवियों ने भारत की आत्मा को शब्द दिए।

इसलिए इतिहासकार इरफ़ान हबीब की बात आंशिक रूप से सही है —
"मध्यकाल में केवल अंधकार नहीं था, संस्कृति की लौ भी जल रही थी।"

निष्कर्ष: क्या पढ़ाया जाए?
मुग़लों द्वारा मंदिर तोड़ने की सच्चाई
उनके द्वारा किए गए जनसंहार
सनातन संस्कृति पर हमले
हिंदू प्रतिरोध की गाथाएँ (महाराणा प्रताप, शिवाजी, गुरु तेग बहादुर)
साथ ही सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भी — तुलसी, कबीर, रहीम, भक्ति आंदोलन

इतिहास का उद्देश्य होना चाहिए – "सच दिखाना, संतुलन के साथ।"

अंतत:
भारत का इतिहास गर्व और संघर्ष का अद्वितीय संगम है।
मुग़ल, खिलजी, ग़ोरी, ग़ज़नवी जैसे आक्रांताओं ने भारत के मंदिरों को तोड़ा, सभ्यता को लूटा, धर्मांतरण कराया, परंतु भारत न मिटा, सनातन न रुका।
आज ज़रूरत है इतिहास को धर्म-राष्ट्र की चेतना से समझने की, ताकि अगली पीढ़ी इतिहास को सिर्फ "तथ्य" नहीं, चेतावनी समझे।


📝 लेखक: कृष्णराव बारस्कर, अधिवक्ता, बैतूल।
संदर्भ:
एनसीईआरटी कक्षा 8 सामाजिक विज्ञान (2025 संस्करण)
बाबरनामा, अकबरनामा, तुज़ुक-ए-जहांगीरी
द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, आईएएनएस
प्रो. इरफ़ान हबीब, माइकल डैनिनो, पार्वती शर्मा की टिप्पणियाँ
स्मृति ग्रंथ: भारत के मंदिर और उनका विध्वंस – एस. गोपाल, वॉल्टर फिशर
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क्या न्यायपालिका भारत को भी संवैधानिक अराजकता की ओर ले जा रही है?

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हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने Writ Petition (Civil) No. 1239 of 2023 के अंतर्गत तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच विधायी प्रक्रिया को लेकर उत्पन्न गतिरोध पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस विस्तृत 414 पृष्ठीय निर्णय में, न्यायालय ने विभिन्न संवैधानिक आयामों की व्याख्या की। किंतु पृष्ठ 142 पर न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला द्वारा लिखे गए निर्णय में एक ऐसा संदर्भ सामने आया है जिसने देश की संवैधानिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है — और वह है पाकिस्तान के संविधान का उल्लेख।

पाकिस्तान के संविधान का संदर्भ: अनुच्छेद 75 और 105:
पैराग्राफ 164 में कहा गया है कि पाकिस्तान में राष्ट्रपति को जब कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, तो उन्हें 10 दिन के भीतर या तो सहमति देनी होती है या संसद को पुनर्विचार हेतु वापस भेजना होता है। अगर विधेयक पुनः पारित हो जाए, तो राष्ट्रपति को उस पर अनिवार्य रूप से हस्ताक्षर करना होता है। यह तर्क भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या के संदर्भ में दिया गया है।

भारत और पाकिस्तान में मूलभूत अंतर: केवल कानून नहीं, मूल्य भी भिन्न हैं:
इस संदर्भ का प्रयोग न्यायिक रूप से भले ही "सहज तुलना" के रूप में किया गया हो, परंतु यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक, संवैधानिक और न्याय आधारित गणराज्य को एक ऐसे असफल राष्ट्र के मॉडल से तुलना करनी चाहिए, जहाँ:
  • न्यायपालिका कार्यपालिका के अधीन मानी जाती है।
  • लोकतंत्र केवल नाममात्र है, वास्तविक सत्ता सेना व खुफिया एजेंसियों के हाथों में है।
  • मीडिया को नियंत्रित किया जाता है और बोलने की आज़ादी निष्क्रिय है।
  • आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता प्रशासन में गहराई से समाहित है।
  • जहा राष्ट्रपति, प्रधानांत्री जैसे शीर्ष संवैधानिक पदों की कोई गरीमा ही नहीं है। 
क्या माननीय न्यायालय को यह ध्यान नहीं देना चाहिए था कि पाकिस्तान का संवैधानिक ढांचा तानाशाही और सैन्य-प्रभावित प्रशासन से ग्रसित है, जिसे भारत में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना स्वयं भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को कमज़ोर करता है?

भारतीय संवैधानिक ढांचे में अनुच्छेद 200 का उद्देश्य:
भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर तीन विकल्प दिए गए हैं:
  • सहमति देना,
  • राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना,
  • पुनर्विचार हेतु विधेयक को लौटाना।
परंतु महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि राज्यपाल को यह कार्य करना राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्यकारी रूप में करना होता है (अनुच्छेद 163)। सुप्रीम कोर्ट के ही निर्णय संशोधन बनाम पंजाब राज्य (2024) 1 SCC 384 में स्पष्ट किया गया है कि जब राज्यपाल किसी विधेयक को अस्वीकृत करते हैं, तो उन्हें पहले संविधान के प्रथम प्रावधान के अनुसार सदन को पुनर्विचार हेतु संदेश देना अनिवार्य होता है।

इस प्रकार, राज्यपाल का यह अधिकार निरंकुश या विवेकाधीन नहीं है, बल्कि संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा में बंधा हुआ है।
संविधान सभा की बहसों में स्पष्ट कहा गया था कि राज्यपाल की भूमिका केवल "रबड़ स्टैम्प" न होकर, "विचारशील परंतु प्रतिबद्ध सलाहकार" की होनी चाहिए, जो मंत्रिपरिषद के साथ सामंजस्य में कार्य करे।

तर्कहीन और खतरनाक तुलना:
यह अशोभनीय है कि भारत जैसे सशक्त और स्वतंत्र राष्ट्र की संवैधानिक प्रक्रिया की तुलना पाकिस्तान जैसे विफल और सैन्य शासित राष्ट्र के ढांचे से किया जाए। यह न केवल भारतीय संघवाद और लोकतंत्र का अपमान है, बल्कि देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को भी आघात पहुंचाता है।

भारतीय संविधान स्वयं में पूर्ण, विस्तृत और सर्वश्रेष्ठ है। इसकी व्याख्या व विकास स्वदेशी दृष्टिकोण से होना चाहिए, न कि विदेशी असफल मॉडलों को आधार बनाकर। सुप्रीम कोर्ट का पाकिस्तान के संवैधानिक प्रावधानों का उदाहरण देना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि यह लोकतांत्रिक चेतना और न्यायिक विवेक के लिए चिंताजनक संकेत भी है।

अगर यह प्रथा चल पड़ी, तो कल को क्या चीन, उत्तर कोरिया या सऊदी अरब के मॉडल से भी भारत के कानूनों की तुलना होगी? भारत का संविधान "We, the People" से शुरू होता है — और जनता की इच्छाएं पाकिस्तान से प्रेरित नहीं, बल्कि भारतीय मूल्यों से संचालित होती हैं।


✍️ लेखक: एडवोकेट कृष्णा बारस्कर
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संवैधानिक सीमाओं की पुनर्स्थापना: सुप्रीम कोर्ट बनाम कार्यपालिका?

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भारतीय संविधान का मूल ढांचा तीन स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के बीच स्पष्ट शक्तियों के बंटवारे पर आधारित है। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित करने वाला निर्णय उस संतुलन को प्रश्नांकित करता है, जो संविधान की आत्मा है।

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय — जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित की गई — ने एक बार फिर देश में संवैधानिक संस्थाओं की सीमाओं और शक्तियों को लेकर विमर्श खड़ा कर दिया है। यह निर्णय, जहां एक ओर संघवाद और उत्तरदायित्व की भावना को सुदृढ़ करता है, वहीं दूसरी ओर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की आपत्ति के रूप में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव को भी उजागर करता है।

इस लेख के माध्यम से हम इस निर्णय की संवैधानिक व्याख्या, इसकी आवश्यकता, तथा उस पर उठे प्रतिरोध के संदर्भ में इसकी समीक्षा करेंगे।

1. राष्ट्रपति – केवल संवैधानिक प्रतीक नहीं, भारतीय संघ का शीर्ष प्रतिनिधि:

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 52 कहता है कि भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 में स्पष्ट किया गया है कि भारत का सम्पूर्ण कार्यपालिका अधिकार राष्ट्रपति में निहित होगा। यह पद केवल एक ‘औपचारिक प्रमुख’ नहीं, बल्कि भारतीय गणराज्य की गरिमा और अखंडता का प्रतिनिधित्व करता है।

  • अनुच्छेद 74 राष्ट्रपति को यह शक्ति देता है कि वह मंत्रिपरिषद की सलाह स्वीकार करें या उसे पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं।
  • अनुच्छेद 111 और अनुच्छेद 201 में विधेयकों पर राष्ट्रपति की भूमिका को परिभाषित किया गया है, किंतु किसी निश्चित समयसीमा का उल्लेख नहीं है।
  • सुप्रीम कोर्ट द्वारा समयसीमा निर्धारण करना संविधान में वर्णित मौन प्रावधानों की न्यायिक पुनर्लेखन की ओर इशारा करता है।

2. अनुच्छेद 142 का न्यायिक उपयोग – असीमित या सीमित?

  • अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को "पूर्ण न्याय" सुनिश्चित करने की शक्ति देता है। परंतु यह शक्ति अन्य संवैधानिक संस्थाओं की स्वतन्त्रता को बाधित करने के लिए नहीं है।
  • सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि राष्ट्रपति का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है, संवैधानिक पद की स्वतंत्र गरिमा को कमजोर करता है।
  • भारत का राष्ट्रपति न्यायपालिका का अधीनस्थ नहीं है, और न ही उसे समयसीमा में बांधना अनुच्छेद 142 की मंशा से मेल खाता है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आर.वी. रमण ने भी कहा था कि अनुच्छेद 142 का प्रयोग "केवल तभी होना चाहिए जब अन्य संवैधानिक मार्ग विफल हो चुके हों।" यह ‘दंड देने का अधिकार’ नहीं, बल्कि ‘विधि की कमी पूरी करने का माध्यम’ है।


3. विधायिका-कार्यपालिका के बीच न्यायपालिका की घुसपैठ?

भारत के संविधान में शक्तियों का पृथक्करण (Doctrine of Separation of Powers) निहित है। इसका तात्पर्य है कि:
  • विधायिका कानून बनाएगी,
  • कार्यपालिका उसे क्रियान्वित करेगी,
  • और न्यायपालिका उसकी व्याख्या करेगी।

जब न्यायपालिका कार्यपालिका के क्षेत्र में नीति निर्धारण करने लगे, तो यह संविधान के मूल ढांचे के विपरीत है। राष्ट्रपति की भूमिका विधानसभा और संसद के संतुलन का आधार है। यदि उन पर निर्णय की समयसीमा थोप दी जाए, तो यह संविधान प्रदत्त विवेकाधिकार (Discretionary Power) का सीधा उल्लंघन है।


4. क्या राष्ट्रपति की गरिमा खतरे में है?

भारत के राष्ट्रपति न केवल एक संवैधानिक पद हैं, बल्कि राष्ट्रीय अखंडता, निष्पक्षता, और तटस्थता के प्रतीक हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह संदेश जाता है कि संवैधानिक प्रमुख को न्यायिक निर्देशों के अधीन माना जा सकता है, जो कि लोकतांत्रिक संतुलन को कमजोर कर सकता है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का यह कथन कि "कोई संस्था संविधान से ऊपर नहीं है" पूरी तरह सत्य है, लेकिन साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि कोई संस्था दूसरी संस्था के अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।


5. संदर्भ और तुलनात्मक दृष्टि:
  • अमेरिका में राष्ट्रपति पर किसी कोर्ट द्वारा कोई समयसीमा नहीं लगाई जाती, चाहे बिल को वीटो करना हो या साइन करना हो।
  • यूनाइटेड किंगडम की संवैधानिक परंपराओं में भी राजा/रानी की भूमिका 'रॉयल एसेंट' तक सीमित है, लेकिन उन्हें कोई न्यायिक निर्देश नहीं दिया जाता।
  • इससे यह सिद्ध होता है कि संवैधानिक प्रमुखों को विधिक प्रक्रिया की मर्यादा में रहते हुए स्वायत्तता दी जाती है


राष्ट्रपति की गरिमा का संरक्षण आवश्यक है!

संविधान का सबसे गरिमामय पद — भारत का राष्ट्रपति — केवल हस्ताक्षरकर्ता नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा और राष्ट्रीय प्रतीक हैं। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय उनकी विवेकाधिकार की शक्ति को सीमित करता है, और इससे संवैधानिक संतुलन में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।

लोकतंत्र केवल शक्तियों का बंटवारा नहीं, बल्कि आपसी सम्मान और सीमाओं का पालन भी है। न्यायपालिका को चाहिए कि वह संविधान की रक्षा करे, लेकिन संवैधानिक गरिमा को सीमित कर नहीं

कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता) बैतूल 

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न्याय की पुकार: पुरुष आत्महत्याएँ और महिला-केंद्रित कानूनों का प्रभाव

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महिला केंद्रित कानूनों के प्रभाव में पुरुषों की अनदेखी: मानव शर्मा और अन्य पीड़ितों की त्रासदीपूर्ण कहानी तथा आंकड़े

Krishna Baraskar (Adv.)

एक दर्द भरी पुकार और आंकड़ों की चुप्पी

टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज के रिक्रूटमेंट मैनेजर मानव शर्मा ने अपनी आत्महत्या से पहले 6.57 मिनट का एक वीडियो रिकॉर्ड किया, जिसमें उन्होंने अपने घरेलू जीवन में अनुभव किए गए दर्द और मानसिक प्रताड़ना को उजागर किया। वीडियो में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “द लॉ नीड टू प्रोटेक्ट मैन” – यानी कानून को पुरुषों की सुरक्षा भी करनी चाहिए।

  • पीड़ित का नाम: मानव शर्मा
  • कारण का संक्षेप: घरेलू जीवन में पत्नी द्वारा लगातार प्रताड़ना, मानसिक अत्याचार और कानूनी सुरक्षा की कमी।

अन्य दर्दनाक उदाहरण और उनके आंकड़े

  1. बेंगलुरु के एआई इंजीनियर अतुल सुभाष की त्रासदी
    बेंगलुरु में कार्यरत अतुल सुभाष ने भी अपने घरेलू उत्पीड़न और मानसिक दबाव के चलते आत्महत्या कर ली।

    • पीड़ित का नाम: अतुल सुभाष
    • कारण का संक्षेप: पत्नी एवं ससुराल वालों द्वारा लगातार उत्पीड़न और मानसिक यातना, जिसके चलते सुरक्षा एवं न्याय की उम्मीद टूट गई।
  2. इंदौर के एक युवक का दर्द भरा अनुभव
    इंदौर में एक युवक (नाम सार्वजनिक नहीं) ने दहेज के झूठे आरोपों और घरेलू प्रताड़ना के दबाव में आत्महत्या कर ली।

    • पीड़ित का नाम: इंदौर के एक युवक (नाम उपलब्ध नहीं)
    • कारण का संक्षेप: दहेज से संबंधित झूठे आरोपों और मानसिक पीड़ा के कारण, जिसमें सुसाइड नोट में अपनी मां से माफी मांगते हुए अपने दर्द का इज़हार किया।

आंकड़ों की रोशनी में – पुरुषों की आत्महत्याओं का परिदृश्य
हाल ही में सामने आए आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि पुरुषों की आत्महत्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं:

  • 2021 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में 1.64 लाख से अधिक लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 81,000+ विवाहित पुरुष और लगभग 28,000 विवाहित महिलाएं शामिल थीं।
  • 2021 में लगभग 33.2% पुरुषों ने पारिवारिक समस्याओं और 4.8% ने वैवाहिक समस्याओं के कारण आत्महत्या की।
  • 2015 से 2022 के बीच कुल 8.09 लाख से अधिक पुरुषों ने आत्महत्या की, यानी हर साल लगभग 1 लाख से अधिक पुरुष सुसाइड करते हैं, जबकि हर वर्ष आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या केवल 43,314 तक सीमित रहती है।
  • 2022 में कुल 1.70 लाख पुरुष आत्महत्या करने वाले मामलों में से 83,713 शादीशुदा पुरुष थे।
  • उसी वर्ष, 21.7% (लगभग 37,587 मामलों) में पारिवारिक समस्याओं को आत्महत्याओं का प्रमुख कारण बताया गया, जबकि केवल 3.28% (लगभग 5,576 मामलों) में वैवाहिक झगड़े, दहेज विवाद, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स या तलाक जैसी समस्याएँ शामिल थीं।
  • आत्महत्या के तरीकों में से 58.2% पुरुषों ने फांसी, 25.4% ने जहर और 5% ने पानी में डूबने तथा 2.9% ने चलती गाड़ियों या ट्रेनों के नीचे आने के माध्यम से आत्महत्या की।

महिला केंद्रित कानूनों का परिदृश्य और पुरुष समाज की अनदेखी
भारत में महिलाओं की सुरक्षा हेतु कई कानून, जैसे कि पूर्व में धारा 498A (जो अब धारा 85 और 86 के तहत आता है) लागू किए गए हैं। इन कानूनों का उद्देश्य घरेलू हिंसा और उत्पीड़न से महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करना है। हालांकि, इन कानूनों का कभी-कभी दुरुपयोग भी हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट और कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस बात पर चेतावनी दी है कि बिना ठोस सबूत के घरेलू उत्पीड़न के आरोप, विशेषकर दहेज प्रताड़ना के मामलों में, केवल महिला को ‘लीगल टेरर’ का शिकार बना सकते हैं।
इस संदर्भ में, 2023 में सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता महेश कुमार तिवारी ने राष्ट्रीय पुरुष आयोग की स्थापना की मांग की, ताकि घरेलू हिंसा के शिकार विवाहित पुरुषों की बढ़ती आत्महत्याओं से निपटा जा सके।

कानूनों की समीक्षा – सुप्रीम कोर्ट से अपील
इन दर्दनाक घटनाओं और आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि कानूनी ढांचे में सुधार की अत्यंत आवश्यकता है। महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है, परंतु पुरुषों की सुरक्षा और संवेदनशीलता को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट से यह अपील है कि वे इस मुद्दे पर गहराई से विचार करें और सुनिश्चित करें कि कानून सभी वर्गों के लिए समान रूप से न्यायसंगत हों। उदाहरण के तौर पर, सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट अश्विनी दुबे ने भी कहा है कि मानव शर्मा के पास तलाक जैसे वैकल्पिक कानूनी रास्ते मौजूद थे, पर उनकी मानसिक स्थिति ने उन्हें आत्महत्या के कगार पर ला खड़ा किया।

एक समावेशी न्याय व्यवस्था की ओर
मानव शर्मा, अतुल सुभाष और इंदौर के युवक की त्रासदी तथा इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि केवल एकतरफा कानून व्यवस्था समाज में दीर्घकालिक असंतुलन पैदा करती है। यदि हम एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करते हैं, तो आवश्यक है कि पुरुष और महिला – दोनों के अधिकार और सुरक्षा समान रूप से सुनिश्चित किए जाएं। कानूनों की समीक्षा और संतुलित सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाने से ही भविष्य में ऐसी त्रासदियाँ दोहराई न जाएँगी।

टिप्पणी: आँकड़े विभिन्न समाचार पत्रों एवं टीवी चैनलों से संकलित किए गए है, अतः वास्तविकता से भिन्न हो सकते है। 

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भारत में धार्मिक पर्यटन: अर्थव्यवस्था पर प्रभाव और भविष्य की संभावनाएं

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भारत, धार्मिक विविधता और सांस्कृतिक धरोहर का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहाँ के मंदिरों, तीर्थ स्थलों, और धार्मिक मेलों का विश्वभर में विशेष महत्व है, और इनसे संबंधित आर्थिक गतिविधियाँ भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को सशक्त बनाती हैं। राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे ऑफिस (NSSO) के अनुसार, धार्मिक यात्राओं का भारत की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 2.32% योगदान है, जो लगभग ₹8,03,414.92 करोड़ (भारत की जीडीपी 4 ट्रिलियन डॉलर का 2.32%) के बराबर होता है। इस योगदान को एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है, और हाल ही में होने वाले प्रमुख धार्मिक आयोजनों, जैसे महाकुंभ, के कारण यह योगदान आने वाले समय में और भी बढ़ने की संभावना है।

2025 में भारत की अर्थव्यवस्था का आकार

भारत की अर्थव्यवस्था 2025 में ₹319 लाख करोड़ (4.26 ट्रिलियन डॉलर) तक पहुँचने की उम्मीद है, जो वर्तमान में ₹300 लाख करोड़ (4 ट्रिलियन डॉलर) है। यह वृद्धि विभिन्न क्षेत्रों में सुधार और निवेश के कारण हो सकती है। भारत की GDP में लगभग 6.5% से 7% की वृद्धि का अनुमान है, जो धार्मिक पर्यटन जैसे क्षेत्रों द्वारा उत्पन्न होने वाली गतिविधियों में योगदान से और बढ़ सकता है। यदि यह अनुमान सही साबित होता है, तो 2025 में भारत की GDP में ₹19 लाख करोड़ का इजाफा हो सकता है, जिससे यह वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख स्थान बनाए रखेगा।

कुंभ मेला: धार्मिक पर्यटन का सबसे बड़ा आयोजन और जीडीपी में योगदान

भारत में कुंभ मेला एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण आयोजन है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला माना जाता है। 2025 में होने वाले महाकुंभ के दौरान 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के आगमन का अनुमान है। विशेषज्ञों के अनुसार, महाकुंभ के दौरान लगभग ₹4 लाख करोड़ का व्यापार होने की संभावना है, जो भारतीय जीडीपी में 1% से अधिक की वृद्धि कर सकता है।

2025 में भारत की अनुमानित GDP ₹319 लाख करोड़ होने के हिसाब से, कुंभ मेले का यह व्यापार ₹3.19 लाख करोड़ (4.26 ट्रिलियन डॉलर का 1%) के बराबर हो सकता है, जो देश की आर्थिक वृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान देगा। इस योगदान से यह साफ होता है कि धार्मिक आयोजन, जैसे कुंभ मेला, भारतीय जीडीपी में एक बड़ा हिस्सा डालते हैं और देश की समग्र आर्थिक गतिविधियों को सशक्त बनाते हैं।

धार्मिक पर्यटन का योगदान

भारत में धार्मिक पर्यटन का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में विशाल है। राष्ट्रीय सांपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के अनुसार, कुल घरेलू पर्यटन में धार्मिक पर्यटन का योगदान 60% है, जबकि अंतरराष्ट्रीय पर्यटन में इसका योगदान 11% है। इस आंकड़े से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय तीर्थ स्थलों और धार्मिक मेलों का पर्यटन उद्योग में विशेष स्थान है। इसके अलावा, धार्मिक पर्यटन की वृद्धि स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को भी मजबूत बनाती है, क्योंकि यह न केवल यात्रा और आवास सेवाओं के लिए अवसर पैदा करता है, बल्कि विभिन्न छोटे और मझोले उद्योगों को भी बढ़ावा देता है।

मंदिरों की अर्थव्यवस्था

भारत में मंदिरों की धार्मिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन मंदिरों का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अभूतपूर्व है। मंदिरों की अर्थव्यवस्था का अनुमान ₹3,00,000 करोड़ के आसपास है। यह आंकड़ा मंदिरों द्वारा प्राप्त दान, प्रसाद, आस्थायी सेवाएं, और उससे संबंधित गतिविधियों से उत्पन्न होने वाले राजस्व को दर्शाता है। इसके साथ ही, मंदिरों के आसपास के क्षेत्रों में फूल, तेल, वस्त्र, सुगंधित सामग्री आदि के लघु उद्योगों का विकास होता है, जिससे स्थानीय रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।

रोजगार के अवसर और क्षेत्रीय विकास

धार्मिक पर्यटन केवल एक पर्यटन गतिविधि नहीं है, बल्कि यह स्थानीय और क्षेत्रीय विकास को भी प्रोत्साहित करता है। यात्रा, आवास, चिकित्सा, खाद्य सेवाएं, परिवहन और अन्य सहायक सेवाओं के क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं। तीर्थ स्थलों के आसपास की अर्थव्यवस्था में भी वृद्धि होती है, जैसे कि होटल, रेस्टोरेंट, और शॉपिंग केंद्रों में व्यापार में बढ़ोतरी होती है। इसके अतिरिक्त, फूलों, प्रसाद, वस्त्र, और अन्य धार्मिक सामग्री के उत्पादन और विक्रय से भी स्थानीय उद्योगों को मजबूती मिलती है।

धार्मिक पर्यटन के लिए राज्य सरकारों की भूमिका

राज्य सरकारों की भूमिका भी धार्मिक पर्यटन के विकास में महत्वपूर्ण है। धार्मिक स्थलों की संरचना और सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं का कार्यान्वयन किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने प्रयागराज में महाकुंभ मेले के आयोजन से संबंधित संरचनात्मक सुधार और सुरक्षा व्यवस्थाएं की हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि श्रद्धालु सुरक्षित और आरामदायक अनुभव प्राप्त कर सकें। साथ ही, राज्य सरकारें और केंद्रीय सरकार धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय सहायता, विज्ञापन अभियान, और प्रचार गतिविधियों का संचालन करती हैं।

2025 में भारत की कुल GDP और "मंदिर अर्थव्यवस्था" से योगदान का आंकलन

2025 में भारत की अनुमानित GDP ₹319 लाख करोड़ (4.26 ट्रिलियन डॉलर) होने की उम्मीद है।

अब, इसका 2.32% योगदान:

4.19ट्रिलियन(जीडीपी)×2.32100=9,72,280करोड़।₹4.19 ट्रिलियन (जीडीपी) \times \frac{2.32}{100} = ₹9,72,280 करोड़।

अब, कुंभ मेले से होने वाला योगदान:

अनुमानित ₹4 लाख करोड़ का व्यापार कुंभ मेले से होने की संभावना है, जो भारत की जीडीपी का 1% के बराबर होता है।

यदि हम दोनों आंकड़ों को जोड़ते हैं:

कुल योगदान = ₹9,72,280 करोड़ (मंदिर अर्थव्यवस्था का 2.32%) + ₹4 लाख करोड़ (कुंभ मेले का 1%) = ₹13,72,280 करोड़।

तो, 2025 में भारत की "मंदिर अर्थव्यवस्था" का कुल योगदान (कुंभ मेले सहित) लगभग ₹13,72,280 करोड़ होगा, जो भारतीय जीडीपी का 4.3% है।

इसका डॉलर में अनुमानित योगदान:

₹13,72,280 करोड़ = लगभग 0.18 ट्रिलियन डॉलर (180 बिलियन डॉलर)

इस प्रकार, 2025 में भारत की कुल GDP में "मंदिर अर्थव्यवस्था" का योगदान ₹13,72,280 करोड़ (0.18 ट्रिलियन डॉलर) होगा, जो कुल जीडीपी का लगभग 4.3% होगा।

अंततः, धार्मिक पर्यटन का महत्व

धार्मिक पर्यटन भारत की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण और अविभाज्य हिस्सा बन चुका है। न केवल यह पर्यटन क्षेत्र की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है, बल्कि यह छोटे और मझोले उद्योगों, रोजगार के अवसरों, और क्षेत्रीय विकास में भी योगदान देता है। कुंभ मेले जैसे आयोजनों के कारण धार्मिक पर्यटन के योगदान में और भी वृद्धि की संभावना है, जिससे भारतीय जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान होगा। इसके अलावा, मंदिरों और तीर्थ स्थलों से उत्पन्न होने वाली गतिविधियाँ भी भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करती हैं।

Adv. Krishna Baraskar,
(Advocate & Tax Consultant), Betul, MP.

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कहानी: अब कुंभ में बिछड़ते नहीं, मिलते हैं! धर्म और विज्ञान का अद्भुत मिलन!

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कृष्णा बारस्कर: हरिद्वार के महाकुंभ का मेला लगा हुआ था। लाखों की भीड़, चारों तरफ श्रद्धा और भक्ति का माहौल। इसी मेले में एक 12 साल का लड़का, रोहित, अपने परिवार से बिछड़ गया। रोहित घबराया हुआ इधर-उधर देख रहा था। तभी उसने देखा कि सामने एक बोर्ड पर लिखा था, "डिजिटल खोया-पाया केंद्र।"

रोहित को ज्यादा समझ नहीं आया, लेकिन वह साहस जुटाकर वहां चला गया। केंद्र में एक पुलिसवाला बैठा था, और उसके साथ बड़ी-बड़ी स्क्रीन लगी थीं। पुलिसवाले ने रोहित से पूछा, "बेटा, डरने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारे परिवार को ढूंढने में AI हमारी मदद करेगा।"

पुलिस ने रोहित की तस्वीर एक कैमरे में खींची और उसे तुरंत AI सिस्टम में अपलोड कर दिया। चंद सेकंड में एक जवाब आया—"रोहित का परिवार मेले के दूसरे छोर पर मौजूद है।"

रोहित को वहां ले जाने के लिए तुरंत पुलिस की गाड़ी तैयार की गई। जब रोहित अपने माता-पिता से मिला तो उसकी मां की आंखों में खुशी के आंसू थे।

इस घटना के बाद, रोहित के पिता ने कहा, "पहले के जमाने में लोग कहते थे कि कुंभ में बिछड़े लोग कभी नहीं मिलते। लेकिन अब, इस 'AI के जमाने' ने साबित कर दिया कि कुंभ में बिछड़े लोग कुंभ में ही मिल सकते हैं।"

तभी पास में खड़ा एक साधु मुस्कुराते हुए बोला, "भई, ये तो विज्ञान और श्रद्धा का संगम है।"

सीख:

तकनीक अगर सही दिशा में इस्तेमाल हो, तो बड़े से बड़े संकट को हल किया जा सकता है। आधुनिक युग की तकनीक और मानवता का मेल हमेशा चमत्कार करता है।

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कहानी: धन बल से नहीं, कानून से न्याय

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कृष्णा बारस्कर: गाँव के साधारण किसान रघु की ज़मीन उसके जीवन का सहारा थी। एक दिन उसका पड़ोसी महेश, जो ताकत और प्रभाव में बड़ा था, ने रघु की ज़मीन का एक हिस्सा अवैध रूप से हड़प लिया। महेश ने रघु को धमकाते हुए कहा, "अगर तूने इस बारे में कुछ कहा, तो अंजाम बहुत बुरा होगा।"

रघु अपने परिवार की सुरक्षा और गरीबी के डर से चुप रहा। लेकिन मन ही मन उसे इस अन्याय से गहरी पीड़ा हो रही थी। एक दिन गाँव में अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर आए, जो कानून के जानकार और न्यायप्रिय व्यक्ति थे।

अधिवक्ता ने जब रघु की समस्या सुनी, तो उन्होंने कहा, "रघु, भारतीय कानून हर व्यक्ति को उसके अधिकार की रक्षा का साधन देता है। तुम्हें अपनी जमीन वापस पाने और इस अन्याय के खिलाफ खड़ा होने का हक़ है।"

कानून का सहारा

अधिवक्ता ने रघु को समझाया कि इस मामले में सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) और विशेष राहत अधिनियम, 1963 की धाराओं का सहारा लिया जा सकता है:

  • CPC की धारा 9 और 34: रघु अपनी जमीन पर कानूनी अधिकार स्थापित करने और हड़पे गए हिस्से को वापस पाने के लिए सिविल कोर्ट में मामला दायर कर सकता है।
  • विशेष राहत अधिनियम की धारा 5 और 6: रघु अवैध कब्जे को हटाने और अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए इस अधिनियम के तहत अधिकार प्राप्त कर सकता है।
  • संविधान का अनुच्छेद 300A: यह अनुच्छेद कहता है कि किसी भी व्यक्ति की संपत्ति को बिना कानूनी प्रक्रिया के छीना नहीं जा सकता।

अधिवक्ता ने यह भी बताया कि यदि महेश ने जबरदस्ती और धमकी का सहारा लिया है, तो यह भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत अपराध है।

  • BNS की धारा 329: महेश ने रघु की जमीन पर अवैध अतिक्रमण किया।
  • BNS की धारा 351: महेश द्वारा रघु को दी गई धमकी आपराधिक धमकी के अंतर्गत आती है।

न्याय की लड़ाई

अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर की मदद से रघु ने अदालत में मामला दायर किया। अदालत ने सबूतों और गवाहों के आधार पर फैसला सुनाया कि महेश ने अवैध तरीके से रघु की जमीन पर कब्जा किया था। अदालत ने आदेश दिया कि:

  1. रघु को उसकी जमीन तुरंत वापस की जाए।
  2. महेश पर अवैध कब्जा और धमकी के लिए जुर्माना लगाया जाए।

न्याय की जीत

फैसले के बाद रघु ने अधिवक्ता से कहा, "अगर आप मेरी मदद न करते, तो मैं कभी अपनी जमीन वापस नहीं पा सकता था।"
अधिवक्ता ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "कानून हमेशा तुम्हारे साथ था, बस तुम्हें अपने अधिकारों को पहचानने और सच के लिए खड़े होने की हिम्मत की जरूरत थी।"

शिक्षा:

हमें अपने कानूनी अधिकारों को जानना और समझना चाहिए। डर के आगे झुकने के बजाय, सच्चाई और कानून का सहारा लेना चाहिए। भारतीय कानून हर नागरिक को न्याय और सुरक्षा की गारंटी देता है।

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कहानी: "संतोष का वरदान"

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कृष्णा बारस्कर: एक बार की बात है, एक छोटे से गाँव में एक व्यक्ति, मोहन, रहता था। मोहन को हमेशा बेहतर से बेहतर पाने की चाह रहती थी। उसने बचपन से यह सीखा था कि सफलता का मतलब है हर चीज़ में सर्वोत्तम हासिल करना। लेकिन इस चाह में, वह अपनी वर्तमान खुशियों को अनदेखा कर देता।

मोहन के पास एक सुंदर घर, हरा-भरा खेत, और एक खुशहाल परिवार था। लेकिन वह कभी संतुष्ट नहीं हुआ। वह हमेशा सोचता, "अगर मेरे पास बड़ा घर होता, तो मैं खुश होता। अगर मेरे खेत में और फसल होती, तो मेरा जीवन और बेहतर होता।"

एक दिन, मोहन को एक साधु मिला। साधु ने उसे चिंतित देखकर पूछा, "तुम्हारी परेशानी क्या है, बेटा?"

मोहन ने कहा, "बाबा, मैं अपने जीवन में कभी संतुष्ट नहीं हो पाता। मैं हमेशा बेहतर की तलाश में रहता हूँ, लेकिन खुशी कहीं नहीं मिलती।"

साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, "तो क्या तुम मेरे साथ जंगल में चलोगे? मैं तुम्हें खुशी का रहस्य बताऊँगा।"

मोहन सहमत हो गया। वे दोनों जंगल की ओर चल पड़े। रास्ते में साधु ने एक पोटली दी और कहा, "इसमें कुछ अनमोल चीज़ें हैं। इसे संभालकर रखना।"

जंगल में चलते-चलते, मोहन का ध्यान पोटली पर गया। उसने सोचा, "इसमें क्या होगा? सोना, चाँदी, या हीरे?" उसने लालच में आकर पोटली खोल दी। लेकिन अंदर केवल कुछ बीज थे।

मोहन को निराशा हुई। उसने साधु से कहा, "बाबा, यह तो बस बीज हैं। इनसे मैं क्या करूँगा?"

साधु ने कहा, "इन बीजों को बोओ और देखो, यह तुम्हें क्या सिखाते हैं।"

मोहन ने बीज बो दिए। कुछ समय बाद, उन बीजों से पौधे उग आए। साधु ने कहा, "अब इन पौधों को रोज़ पानी दो और देखो।" मोहन ने ऐसा ही किया। धीरे-धीरे, पौधे बड़े पेड़ों में बदल गए और उन पर फल आने लगे।

साधु ने कहा, "देखो, खुशी का रहस्य यही है। जैसे इन बीजों को धैर्य, देखभाल और समय की जरूरत थी, वैसे ही तुम्हारे जीवन को भी है। अगर तुम अपने पास जो है, उसकी देखभाल करोगे और उसका आनंद लोगे, तो तुम्हें सच्चा संतोष मिलेगा।"

मोहन को समझ आ गया कि उसकी असंतुष्टि का कारण उसकी अस्थिर इच्छाएँ थीं। उसने अपने जीवन की ओर एक नई दृष्टि से देखना शुरू किया। उसने वर्तमान का आनंद लेना और छोटी-छोटी चीज़ों में खुशी ढूँढना सीखा। अब वह सचमुच संतुष्ट और खुशहाल था।

शिक्षा:

सच्चा सुख हमेशा अपने पास मौजूद चीज़ों की कद्र करने और वर्तमान में जीने से मिलता है। बेहतर की तलाश में अपनी शांति और खुशियों को अनदेखा न करें।

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कहानी: स्वच्छंदता और महत्वाकांक्षा: जीवन का सही पथ

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कृष्णा बारस्कर:
गांव के बीचों-बीच एक सुंदर बगीचा था, जहां पक्षियों का कलरव और पेड़ों की छांव ने इसे अद्भुत बना दिया था। इस बगीचे में दो मित्र, जीवन और प्रतिस्पर्धा, रहते थे।

जीवन एक आजाद पंछी था, जो हर सुबह सूरज की किरणों के साथ आसमान में उड़ने निकल पड़ता। वह बगीचे के हर कोने में गाना गाता, नदी के किनारे बैठकर सूरज को डूबते देखता, और फूलों की खुशबू में अपनी सुबह की शुरुआत करता। वह जो भी पाता, उसे खुशी से स्वीकार करता और हर पल का आनंद लेता।

दूसरी ओर प्रतिस्पर्धा हमेशा कुछ नया और बड़ा पाने के लिए व्यस्त रहता। उसका मानना था कि जीवन में केवल बेहतर पाने की कोशिश ही वास्तविक खुशी है। वह रोज़ नए-नए लक्ष्य तय करता और उन्हें पाने के लिए दिन-रात मेहनत करता। लेकिन हर बार जब वह एक लक्ष्य को हासिल करता, तो उसे कुछ और बड़ा पाने की चाह सताने लगती।

समय बीता और 40 साल बाद दोनों मित्र फिर से एक नदी के किनारे मिले। जीवन अभी भी उतना ही खुश था, जितना पहले था। उसने अपनी कहानी सुनाई: “मैंने हर दिन खुशी से बिताया। जो मिला, उसे अपनाया। मैंने आसमान को छुआ, हवाओं को महसूस किया और बगीचे की हर छोटी चीज़ का आनंद लिया।”

प्रतिस्पर्धा ने सिर झुकाया और कहा, “मैंने अपनी जिंदगी कुछ बडे़ लक्ष्यों के पीछे दौड़ते हुए बिता दी। जो पाया, उससे संतुष्ट नहीं हुआ, और जो नहीं पाया, उसकी चिंता करता रहा। आज मेरे पास सब कुछ है, लेकिन वह खुशी नहीं है जो तुम्हारे पास है।”

जीवन मुस्कुराया और बोला, “दोस्त, जीवन का असली सुख हर पल में छुपा है। जो वर्तमान में है, उसे अपनाओ। बड़ा पाने की चाह अच्छी है, लेकिन अपने आज को मत भूलो।”

उस दिन प्रतिस्पर्धा ने ठान लिया कि वह भी अब अपने जीवन का आनंद लेना शुरू करेगा।

कहानी का संदेश: संतुष्टि और वर्तमान में जीने का महत्व हमें सिखाता है कि सच्ची खुशी बाहरी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि छोटे-छोटे पलों को अपनाने में है।

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कहानी: संतोष का पाठ

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छोटी सी शिक्षाप्रद कहानी:

रवि और मोहन बचपन के घनिष्ठ मित्र थे। रवि एक साधारण जीवन जीता था, लेकिन हमेशा संतुष्ट और खुश रहता था। दूसरी ओर, मोहन हमेशा अपनी आर्थिक और पारिवारिक परेशानियों के बारे में शिकायत करता रहता। वह नई-नई चीजों की खोज में इतना व्यस्त था कि अपने दोस्तों और परिवार के लिए समय निकालना भूल जाता था।

एक दिन, मोहन ने रवि से अपनी समस्याओं पर चर्चा की। रवि ने मुस्कुराते हुए कहा, "मोहन, तुम्हारे पास बहुत कुछ है, लेकिन तुम्हारी असंतुष्टि तुम्हें कभी चैन नहीं लेने देगी। जो तुम्हारे पास है, उसकी कद्र करो। खुश रहने के लिए भौतिक चीजों से ज्यादा आत्मिक संतोष जरूरी है।"

मोहन ने रवि की बातों पर विचार किया। उसने महसूस किया कि उसकी असली खुशी भौतिक चीजों में नहीं, बल्कि जीवन के छोटे-छोटे पलों में छिपी है। धीरे-धीरे, उसने संतोष और अपने प्रियजनों के साथ समय बिताने का महत्व समझा।

शिक्षा:

जीवन में संतोष और अपनों के साथ बिताया गया समय सबसे बड़ी संपत्ति है। असली खुशी भीतर से आती है, न कि बाहरी चीजों से।

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वक्फ संपत्तियाँ और उनके विवाद: "लैंड जिहाद" की वास्तविकता और प्रशासनिक परिप्रेक्ष्य

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भारतीय संसद द्वारा वक्फ संशोधन अधिनियम पर विचार हेतु उसे जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी के पास भेजा गया था। उक्त समिति के सदस्यों के हवाले से अधिनियम के मुद्दों पर कभी-कभी असहमति या किसी विवाद की खबरें बाहर आती रहती हैं। आइए, हम भी इस वक्फ बोर्ड एवं उसके संचालन के लिए बने वक्फ बिल पर विचार करें:

भारत में वक्फ बोर्ड के गठन और उसके बाद की घटनाओं पर विचार करते हुए कई गंभीर सवाल उठते हैं, जैसे कि क्या इसके पीछे भूमि कब्जे, "लैंड जिहाद", और अनुचित लाभ उठाने की कोई साजिश है। वक्फ बोर्ड के पास लगभग 9 लाख 40 हजार एकड़ भूमि होने का दावा किया जाता है, जो इसे दुनिया की सबसे बड़ी अचल संपत्ति संस्थाओं में से एक बनाता है। हालांकि, इसके साथ ही वक्फ बोर्ड पर यह आरोप भी लगते हैं कि वह अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर विभिन्न भूखंडों पर कब्जा कर रहा है और उन्हें "वक्फ की संपत्ति" घोषित कर रहा है। यह प्रक्रिया कई लोगों द्वारा "लैंड जिहाद" के रूप में देखी जा रही है, जहां जमीन हड़पने के तरीके अपनाए जा रहे हैं।

इन आरोपों के बीच, यह सवाल भी उठता है कि क्या राजनीतिक तत्व, खासकर कांग्रेस-शासित राज्यों में, इस अतिक्रमण को बढ़ावा दे रहे हैं। कई मामलों में वक्फ बोर्ड द्वारा गाँव-गाँव को अपनी संपत्ति घोषित किया जा रहा है, और वहां रहने वालों पर धर्मांतरण या गाँव छोड़ने का दबाव डाला जा रहा है। इस बीच, यह चिंता भी जाहिर की जा रही है कि क्या सरकारी और निजी स्तर पर इन जमीनों के सौदों में संलिप्तता हो रही है, जिससे वक्फ बोर्ड के कब्जे के पीछे किसी प्रकार के घोटाले की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इन घटनाओं के बीच, वक्फ बोर्ड के खिलाफ गंभीर जांच और निगरानी की आवश्यकता को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं।

वक्फ बोर्ड का इतिहास और संरचना:

वक्फ शब्द अरबी भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ है "दान की गई संपत्ति"। यह संपत्ति धार्मिक, शैक्षिक या समाज कल्याण के कार्यों के लिए दान की जाती है। भारतीय संविधान और वक्फ अधिनियम 1995 के तहत वक्फ बोर्ड का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय द्वारा दान की गई सम्पत्तियों की देखभाल करना और उनका सही तरीके से उपयोग सुनिश्चित करना था। वक्फ बोर्ड इन संपत्तियों का प्रबंधन करते हुए धार्मिक संस्थाओं, मदरसों और मस्जिदों के लिए संसाधन प्रदान करता है।

वक्फ बोर्ड पर सरकारी, निजी और ऐतिहासिक भूमि कब्जे के आरोप:

हाल के वर्षों में वक्फ बोर्ड पर कई आरोप लग रहे हैं कि वह सार्वजनिक और निजी भूमि पर अनधिकृत कब्जा कर रहा है। खासतौर पर कांग्रेस शासित राज्यों में वक्फ संपत्तियों पर कब्जे की घटनाएँ अधिक देखने को मिली हैं। आरोप यह है कि वक्फ बोर्ड "वक्फ संपत्ति" का बोर्ड लगाकर भूमि पर कब्जा कर लेता है, जिससे स्थानीय लोगों को नुकसान पहुँचता है। इस प्रक्रिया को "लैंड जिहाद" के रूप में संदर्भित किया जा रहा है, क्योंकि इसे भूमि कब्जे की एक योजनाबद्ध कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

वक्फ बोर्ड ने हाल के वर्षों में कई प्राचीन स्थलों और जमीनों पर स्वामित्व का दावा किया है, जिससे विभिन्न विवाद उत्पन्न हुए हैं। इनमें प्रमुख स्थानों में ताजमहल शामिल है, जिस पर वक्फ बोर्ड ने दावा किया, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने इसे खारिज करते हुए इसे राष्ट्रीय संपत्ति माना। इसी तरह, दिल्ली की जामा मस्जिद और लाल किला के भीतर की मस्जिद और आसपास के हिस्सों पर भी वक्फ बोर्ड ने अधिकार जताया, हालांकि इन पर ASI का नियंत्रण है। तमिलनाडु के तिरुचेंदुराई जैसे कई गाँवों में वक्फ बोर्ड ने 389 एकड़ भूमि का दावा किया है, जिसे 1954 के सर्वेक्षण के आधार पर वक्फ संपत्ति के रूप में दर्ज किया गया है, जिससे स्थानीय लोग बिना अनुमति के इसे नहीं बेच सकते।

केरल के मुनम्बम और चेराई गाँव में करीब 600 ईसाई परिवारों को वक्फ बोर्ड की संपत्ति के दावों के कारण अपने घरों और जमीन पर अधिकार खोने का खतरा है। चर्च संगठनों ने इसे संसद की संयुक्त समिति में उठाया है, और उनका मानना है कि वक्फ बोर्ड का दावा अवैध है। इसके अलावा, कर्नाटक राज्य के 53 संरक्षित पुरातात्विक स्थलों पर वक्फ बोर्ड ने अपना दावा किया है, जिनमें विजयपुरा जिले के गोल गुम्बज और इब्राहिम रौजा जैसे महत्वपूर्ण स्मारक भी शामिल हैं।

इन स्मारकों पर वक्फ बोर्ड ने 2005 में विजयपुरा के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर और वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष मोहसिन द्वारा उन्हें वक्फ संपत्ति के रूप में अधिसूचित किया था। इसके बाद वक्फ बोर्ड ने विजयपुरा के 43 स्मारकों पर कब्जा कर लिया और कई संरचनाओं में आधुनिक सुविधाएं जैसे सीमेंट, प्लास्टर, पंखे, एसी, और फ्लोरोसेंट लाइट्स जोड़ीं, जिससे उनकी ऐतिहासिकता और प्राचीनता प्रभावित हुई। ASI ने इन पर अपने अधिकार की रक्षा करने के लिए कई बार प्रयास किए हैं, लेकिन यह मामला अभी तक अनसुलझा है। इस प्रकार, इन दावों को लेकर स्थानीय समुदायों, धार्मिक संस्थानों और सरकार के बीच विवाद जारी हैं, और कानूनी प्रक्रियाएँ भी चल रही हैं, जिनका समाधान अदालतों और सरकारी निकायों द्वारा किया जा रहा है।

वक्फ संपत्तियों का अनुचित इस्तेमाल:

वक्फ संपत्तियाँ विशेष रूप से धार्मिक उद्देश्यों के लिए निर्धारित होती हैं, लेकिन इसके प्रबंधन में कई बार भ्रष्टाचार और अनियमितताएँ देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए, वक्फ बोर्ड द्वारा कब्जाई गई जमीनों पर व्यापारिक गतिविधियाँ या अवैध निर्माण कार्य करने के आरोप लगते हैं। यह असंतोष और विरोध की भावना पैदा कर रहा है, क्योंकि कई बार यह महसूस होता है कि इन संपत्तियों का सही तरीके से उपयोग नहीं किया जा रहा। ऐसे मामलों में पारदर्शिता की कमी और प्रशासनिक लापरवाही भी देखी जाती है।

राजनीतिक संरक्षण और प्रशासनिक लापरवाही:

कई आलोचकों का मानना है कि वक्फ बोर्ड द्वारा भूमि कब्जे की घटनाओं में राजनीतिक दलों का भी हाथ है। खासतौर पर कांग्रेस शासित राज्यों में यह आरोप ज्यादा उठते हैं कि वक्फ बोर्ड को राजनीतिक संरक्षण मिल रहा है। कई स्थानीय समुदायों ने आरोप लगाया है कि उनकी संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित कर उनपर धर्मांतरण के लिए दबाव डाला जा रहा है, या फिर अपनी जमीन छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इस प्रकार की घटनाएँ समाज में असंतोष का कारण बन रही हैं और इसे राजनीतिक साजिश के रूप में देखा जा रहा है।

न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता:

वक्फ बोर्ड के द्वारा भूमि पर कब्जे और उनके दुरुपयोग के बढ़ते मामलों ने यह सवाल उठाया है कि क्या यह संस्था संविधान और न्याय व्यवस्था के तहत सही तरीके से काम कर रही है। अगर वक्फ बोर्ड बिना उचित निगरानी के अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा है, तो यह निश्चित रूप से एक गंभीर चिंता का विषय है। इस समस्या का समाधान केवल पारदर्शिता और प्रशासनिक सुधारों से ही संभव है। एक स्वतंत्र न्यायिक आयोग की स्थापना की आवश्यकता है, जो वक्फ संपत्तियों पर कब्जे की न्यायिक समीक्षा कर सके और यह सुनिश्चित कर सके कि कब्जे वैध थे या नहीं।

वक्फ संपत्ति के घोटाले और सवाल:

वक्फ बोर्ड के कार्यों पर भ्रष्टाचार और घोटाले के आरोप भी लगाए जा रहे हैं। कई रिपोर्टों में यह सामने आया है कि वक्फ संपत्तियों का अवैध रूप से व्यापार हो रहा है, और इसमें कई सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं की संलिप्तता हो सकती है। खासतौर पर, सरकारी संपत्तियों को बिना उचित प्रक्रिया के वक्फ संपत्तियों के रूप में घोषित किया जा रहा है, जिससे भूमि अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या वक्फ बोर्ड को "लैंड जिहाद" के रूप में राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण मिल रहा है।

उठते सवाल:

वक्फ बोर्ड द्वारा भूमि कब्जे और इसके दुरुपयोग के बढ़ते मामलों ने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या इसे बिना नियंत्रण के कार्य करने की अनुमति दी जा रही है। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार देने का प्रावधान है, लेकिन वक्फ बोर्ड के कार्यों में समानता की भावना की अनदेखी हो रही है। अगर यह स्थिति इसी तरह बनी रही, तो समाज में असंतोष और तनाव बढ़ सकता है, जो देश की एकता और अखंडता के लिए खतरे की घंटी हो सकती है। इसके समाधान के लिए, वक्फ बोर्ड के कार्यों में पारदर्शिता और प्रशासनिक सुधार की आवश्यकता है, ताकि इस संस्था को संविधान के अनुरूप चलाया जा सके और इसके दुरुपयोग को रोका जा सके।

सम्भावित समाधान:

  1. स्वतंत्र जांच आयोग: वक्फ संपत्तियों से जुड़े विवादों की जांच के लिए एक स्वतंत्र आयोग की स्थापना की जाए।
  2. कानूनी समाधान: वक्फ अधिनियम का विलोपन या ऐसे संशोधन जिनसे संपत्ति मालिकों के अधिकारों की रक्षा हो सके।
  3. सामाजिक जागरूकता: भूमि अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए, ताकि लोग अपनी संपत्तियों की सुरक्षा के लिए उचित कदम उठा सकें।

वर्तमान स्थिति में वक्फ बोर्ड की शक्तियों और अधिकारों पर संतुलन लाना जरूरी है, ताकि यह संस्था संविधान के अनुरूप कार्य कर सके और सभी समुदायों के लिए भूमि अधिकारों की रक्षा कर सके।

 

Krishna Baraskar (Advocate)
Betul, Email: krishnabaraskar@gmail.com
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