‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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‘‘एक ढाबा ऐसा भी...’’

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जहाँ सेवा धर्म है, और ‘सीताराम’ ही मूल्य

यात्रा काल: 20 जुलाई 2025 से 23 जुलाई 2025
मार्ग: पचमढ़ी → बागेश्वर धाम → खजुराहो → छतरपुर→ सागर 
साथी: मामा, भांजे, भांजी और भतीजे की धार्मिक टोली


21 जुलाई 2025 — जंगल की रात और विश्वास की रोशनी

हमारी यह यात्रा केवल एक धार्मिक भ्रमण नहीं थी, यह आत्मा की खोज थी।
उस दिन रात 11 बजे, जब हम छतरपुर से लगभग 22–23 किलोमीटर पहले एनएच-34 पर एक सघन वन क्षेत्र से गुजर रहे थे, तब लगा कि भक्ति की यह यात्रा अब एक परीक्षा में बदल रही है।

रात्रि के तीसरे प्रहर में, अंधेरा सघन और रास्ते अनजान थे। परिवार साथ था, थकावट और भूख भी साथ थी, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न था —
“अब कहाँ रुकें?”

छोटे भाई ने कुछ बंद हो चुके ढाबों पर गाड़ी रोककर पूछा, पर कोई सहारा नहीं मिला। तभी एक वृद्ध ढाबेवाले ने सलाह दी —

“बेटा, आगे ‘शिव ढाबा’ है… वहाँ ज़रूर ठहराव मिलेगा। वो 24 घंटे खुला रहता है।”

यह नाम जैसे अंधेरे में एक दीपक था। कुछ दूर चलते ही, वन क्षेत्र के बीच एक चमकता स्थान मिला —
शिव ढाबा।


भोजन नहीं, श्रद्धा का प्रसाद

हमारे छोटे से निवेदन पर ढाबे के संचालक ने हमें सद्पुरुष जान सहज ही
पहले भोजन, फिर सुरक्षित विश्राम की अनुमति दे दी।
न तो हमने उनसे ढाबे के बारे में जानकारी ली, न ही उन्हे हमसे कोई गहन पूछताछ की आवश्यकता पड़ी।

रात्रि के उस समय में थाली में परोसा गया भोजन जैसे प्रसाद लग रहा था —
गर्म, स्वादिष्ट, पूरी तरह सात्विक, और आत्मीयता से भरा हुआ।

लेकिन असली चमत्कार तो इसके बाद शुरू हुआ...


राम नाम की पुस्तक — सेवा का मूल्य नहीं, पुण्य का अवसर

अगले दिन सुबह चाय-नाश्ते के बाद जब प्रस्थान का समय आया, तो मैंने उनसे उनका विज़िटिंग कार्ड चाहा।
तब उन्होंने हमें एक छोटी सी कॉपी दी जिसमें 2000 बार ‘सीताराम’ लिखना था।

संचालक जी ने मुस्कुराते हुए कहा —

“आप जितनी पुस्तकें राम नाम लिखी हुई वापस करेंगे, उतनी बार निःशुल्क भोजन कर सकते हैं — आज, कल, जब चाहें।”

हम सब इस भाव से अभिभूत हो गए।
हम सक्षम थे, इसलिए हमने भोजन का भुगतान किया, लेकिन ‘सीताराम’ की पुस्तक अवश्य ली।
मन में यह भावना थी कि सेवा का सम्मान भी सेवा है, और राम नाम लेखन एक ऐसा पुण्य कार्य है जो न केवल थाली भरता है, बल्कि आत्मा भी।

हमने उनसे पूछा —
“अगर कोई रोज़ यहाँ आकर लिखे और भोजन करे तो?”
संचालक जी ने सहज भाव से उत्तर दिया —
“कोई जब तक चाहे तब तक सीताराम-थाली रूपी प्रसाद ले सकता है — सेवा की कोई सीमा नहीं।”

उन्होंने हमें कई पुस्तिकाएं भी दीं, ताकि जब भी हम आएं या घर पर समय निकालें, राम नाम में मन लगा सकें।


22 जुलाई 2025 — वापसी पर फिर वही अनुभव

खजुराहो और बागेश्वर धाम की यात्रा पूर्ण कर जब हम वापसी में फिर उसी मार्ग से गुज़रे,
तो बिना किसी योजना के मन ने निर्णय लिया —

“फिर से शिव ढाबे चलते हैं।”

और जैसे समय थम गया हो। वहाँ पहुँचते ही वही स्नेह, वही आत्मीयता, वही सम्मान
एक बार फिर गर्मागर्म भोजन, विश्राम की व्यवस्था, सुबह की चाय और बिस्किट — सब कुछ पूर्ववत।

यह अनुभव हमें यह सिखा गया कि सच्ची सेवा व्यवसाय नहीं होती, वह संस्कार होती है।
शिव ढाबा केवल पेट नहीं भरता — वह संस्कार, श्रद्धा और सुरक्षा देता है।
और सबसे बड़ी बात —

यह ढाबा दिन-रात, 24 घंटे खुला रहता है, हर मुसाफ़िर की सेवा के लिए हर समय तत्पर।


एक सीख, एक स्मृति, एक प्रेरणा

लोग अक्सर कहते हैं —

“भगवान खुद नहीं आते, पर मदद ज़रूर भेजते हैं।”
शिव ढाबा वही मदद था — एक प्रतीक, कि जब रास्ता कठिन हो, जंगल गहरा हो,
तो ईश्वर किसी विशाल राजा बुंदेला जी को हमारे लिए खड़ा कर देते हैं।

यह कोई साधारण ढाबा नहीं था।
यह एक जीवंत तीर्थ है, जहाँ सीताराम लेखन आपकी थाली है, और सेवा ही प्रसाद


हमारा प्रण

हम घर लौट आए हैं, लेकिन सीताराम की पुस्तकें हमारे पास हैं।
अब राम नाम लिखते हुए मन हर दिन उसी शिव ढाबा की याद में झूम उठता है
हमारे लिए यह अनुभव अब केवल याद नहीं, एक आदर्श बन चुका है।

यदि आप कभी छतरपुर की ओर निकलें, तो

“शिव ढाबा” जरूर जाएं —

न केवल भोजन के लिए, बल्कि यह देखने के लिए कि आज भी इस युग में सेवा, श्रद्धा और आत्मीयता जीवित हैं।



- कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता), बैतूल
(21-22 जुलाई 2025 की स्मृतियों के साथ)


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मध्यकालीन भारत: आक्रांताओं का आक्रमण और हमारी सांस्कृतिक चेतना का संघर्ष

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इतिहास केवल अतीत की घटनाओं का संकलन नहीं होता — यह समाज की आत्मा की स्मृति है। विगत कुछ समय से भारत के स्कूली पाठ्यक्रमों में खासकर एनसीईआरटी की पुस्तकों में, मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के कृत्यों को लेकर जो बदलाव हुए हैं, वे एक महत्वपूर्ण बहस का विषय बन चुके हैं। क्या मंदिर विध्वंस, जनसंहार, और सांस्कृतिक आघात जैसे क्रत्य बच्चों को पढ़ाए जाने चाहिए? क्या यह "हिंदू भावनाओं को भड़काने" जैसा है या "ऐतिहासिक सच का सामना करना"? यह लेख इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देता है — तथ्य, साक्ष्य, और ऐतिहासिक दृष्टिकोण के साथ।

1. क्या इतिहास में क्रूरता को छिपाना चाहिए?
इतिहास में जो हुआ, वह हुआ — हम उसे बदल नहीं सकते।
भारत के मध्यकाल में महमूद ग़ज़नवी (1025), मोहम्मद ग़ोरी (1191), और खिलजियों, तुग़लकों, मुग़लों द्वारा असंख्य मंदिरों का विध्वंस, हिंदू राजाओं का कत्लेआम, महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाना, धार्मिक पहचान को मिटाने का प्रयास, जैसे कई प्रमाणित तथ्य हैं।

सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ, मथुरा के केशवदेव मंदिर, विजयनगर के मंदिर, जैन और सिख तीर्थस्थलों पर हमले इतिहास की गोपनीयता में नहीं, मुग़ल दरबारों के फ़रमानों, विदेशी यात्रियों की रिपोर्टों, और लोक स्मृतियों में सुरक्षित हैं।

2. क्या ये आक्रमण धर्म के नाम पर थे?
महमूद ग़ज़नवी ने अपने हमले को ‘जिहाद’ कहा।
औरंगज़ेब ने काशी और मथुरा के मंदिर तोड़कर वहाँ मस्जिदें बनाईं।
मुग़ल फ़रमान स्पष्ट रूप से कहते हैं – “मूर्तिपूजा को नष्ट करना हमारा कर्तव्य है।”

ये घटनाएँ केवल सत्ता संघर्ष नहीं थीं — ये संस्कृति और धर्म पर सुनियोजित हमले थे।
और यह बताना ज़रूरी है ताकि अगली पीढ़ी को पता चले कि किस तरह संस्कृति की रक्षा की जाती है।

3. क्या सब मुस्लिम शासक क्रूर थे?
यहाँ एक विवेकपूर्ण संतुलन आवश्यक है।
अकबर ने अपने जीवन के शुरुआती दौर में चित्तौड़ पर हमला कर 30,000 नागरिकों का वध कराया — यह तथ्य अकबरनामा और एनसीईआरटी की नई पुस्तक में भी स्वीकार किया गया है।

परंतु —
बाद के वर्षों में अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता, जज़िया कर की समाप्ति, और राजपूतों से मैत्री की नीति अपनाई।
तानसेन, रहीम, अबुल फ़ज़ल जैसे विद्वान उसके दरबार में थे।

यह पढ़ाना आवश्यक है कि एक ही शासक में क्रूरता और सहिष्णुता, दोनों पहलू हो सकते हैं।
परंतु केवल एक पक्षीय "गंगा-जमुनी तहज़ीब" दिखाकर क्रूरता को सफेद नहीं किया जा सकता।

4. मुग़ल भारत के नहीं थे — पर क्या बन गए थे?
बाबर और हुमायूं मध्य एशिया से आए थे – यह सत्य है।
परंतु अकबर से लेकर बहादुर शाह ज़फ़र तक सभी मुग़ल शासक भारत में ही जन्मे, पले-बढ़े और यहीं मरे।

तो क्या वे “भारतीय” थे?
भारत की आत्मा से जुड़ना और भारतीय संस्कृति को आत्मसात करना, यह सच्चा भारतीयत्व है —
परंतु मुग़लों का बहुसंख्यक हिस्सा कभी हिंदू धर्म, परंपरा, पर्व, मंदिर या सनातन संस्कृति का संवाहक नहीं बना।
इसलिए सत्ता तो उन्होंने भारत पर की, पर आत्मा से वे भारतीय नहीं हुए।

5. क्या यह "इतिहास बदलना" है?
आज जब एनसीईआरटी की नई पुस्तक में इन तथ्यों को लाया गया, तो कई तथाकथित इतिहासकारों ने आरोप लगाया —
"सरकार इतिहास को तोड़-मरोड़कर, पूर्वाग्रह के साथ, हिन्दू मानसिकता को तुष्ट करने के लिए लिखवा रही है।"

लेकिन यह भूल जाते हैं कि इतिहास तथ्यों से चलता है, कल्पनाओं से नहीं।
यदि पहले के पाठ्यक्रमों में मंदिर विध्वंस या लूट का कोई ज़िक्र नहीं था, तो यह विकृति थी, संशोधन नहीं।

6. इतिहास पढ़ाया जाए — लेकिन क्यों?
ना तो नफ़रत फैलाने के लिए,
ना ही हीन भावना से ग्रसित करने के लिए,
बल्कि सांस्कृतिक चेतना और आत्म-सम्मान जगाने के लिए।

❝ जो समाज अपने अतीत के अत्याचार भूल जाता है, वह भविष्य में फिर गुलाम बनता है ❞
– स्वामी विवेकानंद

7. क्या मध्यकाल केवल “अंधकारमय युग” था?
यह कहना भी आधे सच का प्रचार होगा।

उसी युग में:
रामचरितमानस की रचना हुई,
भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था,
संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, रहीम, जायसी, सूरदास जैसे संत–कवियों ने भारत की आत्मा को शब्द दिए।

इसलिए इतिहासकार इरफ़ान हबीब की बात आंशिक रूप से सही है —
"मध्यकाल में केवल अंधकार नहीं था, संस्कृति की लौ भी जल रही थी।"

निष्कर्ष: क्या पढ़ाया जाए?
मुग़लों द्वारा मंदिर तोड़ने की सच्चाई
उनके द्वारा किए गए जनसंहार
सनातन संस्कृति पर हमले
हिंदू प्रतिरोध की गाथाएँ (महाराणा प्रताप, शिवाजी, गुरु तेग बहादुर)
साथ ही सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भी — तुलसी, कबीर, रहीम, भक्ति आंदोलन

इतिहास का उद्देश्य होना चाहिए – "सच दिखाना, संतुलन के साथ।"

अंतत:
भारत का इतिहास गर्व और संघर्ष का अद्वितीय संगम है।
मुग़ल, खिलजी, ग़ोरी, ग़ज़नवी जैसे आक्रांताओं ने भारत के मंदिरों को तोड़ा, सभ्यता को लूटा, धर्मांतरण कराया, परंतु भारत न मिटा, सनातन न रुका।
आज ज़रूरत है इतिहास को धर्म-राष्ट्र की चेतना से समझने की, ताकि अगली पीढ़ी इतिहास को सिर्फ "तथ्य" नहीं, चेतावनी समझे।


📝 लेखक: कृष्णराव बारस्कर, अधिवक्ता, बैतूल।
संदर्भ:
एनसीईआरटी कक्षा 8 सामाजिक विज्ञान (2025 संस्करण)
बाबरनामा, अकबरनामा, तुज़ुक-ए-जहांगीरी
द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, आईएएनएस
प्रो. इरफ़ान हबीब, माइकल डैनिनो, पार्वती शर्मा की टिप्पणियाँ
स्मृति ग्रंथ: भारत के मंदिर और उनका विध्वंस – एस. गोपाल, वॉल्टर फिशर
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भारत में धार्मिक पर्यटन: अर्थव्यवस्था पर प्रभाव और भविष्य की संभावनाएं

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भारत, धार्मिक विविधता और सांस्कृतिक धरोहर का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहाँ के मंदिरों, तीर्थ स्थलों, और धार्मिक मेलों का विश्वभर में विशेष महत्व है, और इनसे संबंधित आर्थिक गतिविधियाँ भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को सशक्त बनाती हैं। राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे ऑफिस (NSSO) के अनुसार, धार्मिक यात्राओं का भारत की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 2.32% योगदान है, जो लगभग ₹8,03,414.92 करोड़ (भारत की जीडीपी 4 ट्रिलियन डॉलर का 2.32%) के बराबर होता है। इस योगदान को एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है, और हाल ही में होने वाले प्रमुख धार्मिक आयोजनों, जैसे महाकुंभ, के कारण यह योगदान आने वाले समय में और भी बढ़ने की संभावना है।

2025 में भारत की अर्थव्यवस्था का आकार

भारत की अर्थव्यवस्था 2025 में ₹319 लाख करोड़ (4.26 ट्रिलियन डॉलर) तक पहुँचने की उम्मीद है, जो वर्तमान में ₹300 लाख करोड़ (4 ट्रिलियन डॉलर) है। यह वृद्धि विभिन्न क्षेत्रों में सुधार और निवेश के कारण हो सकती है। भारत की GDP में लगभग 6.5% से 7% की वृद्धि का अनुमान है, जो धार्मिक पर्यटन जैसे क्षेत्रों द्वारा उत्पन्न होने वाली गतिविधियों में योगदान से और बढ़ सकता है। यदि यह अनुमान सही साबित होता है, तो 2025 में भारत की GDP में ₹19 लाख करोड़ का इजाफा हो सकता है, जिससे यह वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख स्थान बनाए रखेगा।

कुंभ मेला: धार्मिक पर्यटन का सबसे बड़ा आयोजन और जीडीपी में योगदान

भारत में कुंभ मेला एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण आयोजन है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला माना जाता है। 2025 में होने वाले महाकुंभ के दौरान 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के आगमन का अनुमान है। विशेषज्ञों के अनुसार, महाकुंभ के दौरान लगभग ₹4 लाख करोड़ का व्यापार होने की संभावना है, जो भारतीय जीडीपी में 1% से अधिक की वृद्धि कर सकता है।

2025 में भारत की अनुमानित GDP ₹319 लाख करोड़ होने के हिसाब से, कुंभ मेले का यह व्यापार ₹3.19 लाख करोड़ (4.26 ट्रिलियन डॉलर का 1%) के बराबर हो सकता है, जो देश की आर्थिक वृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान देगा। इस योगदान से यह साफ होता है कि धार्मिक आयोजन, जैसे कुंभ मेला, भारतीय जीडीपी में एक बड़ा हिस्सा डालते हैं और देश की समग्र आर्थिक गतिविधियों को सशक्त बनाते हैं।

धार्मिक पर्यटन का योगदान

भारत में धार्मिक पर्यटन का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में विशाल है। राष्ट्रीय सांपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के अनुसार, कुल घरेलू पर्यटन में धार्मिक पर्यटन का योगदान 60% है, जबकि अंतरराष्ट्रीय पर्यटन में इसका योगदान 11% है। इस आंकड़े से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय तीर्थ स्थलों और धार्मिक मेलों का पर्यटन उद्योग में विशेष स्थान है। इसके अलावा, धार्मिक पर्यटन की वृद्धि स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को भी मजबूत बनाती है, क्योंकि यह न केवल यात्रा और आवास सेवाओं के लिए अवसर पैदा करता है, बल्कि विभिन्न छोटे और मझोले उद्योगों को भी बढ़ावा देता है।

मंदिरों की अर्थव्यवस्था

भारत में मंदिरों की धार्मिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन मंदिरों का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अभूतपूर्व है। मंदिरों की अर्थव्यवस्था का अनुमान ₹3,00,000 करोड़ के आसपास है। यह आंकड़ा मंदिरों द्वारा प्राप्त दान, प्रसाद, आस्थायी सेवाएं, और उससे संबंधित गतिविधियों से उत्पन्न होने वाले राजस्व को दर्शाता है। इसके साथ ही, मंदिरों के आसपास के क्षेत्रों में फूल, तेल, वस्त्र, सुगंधित सामग्री आदि के लघु उद्योगों का विकास होता है, जिससे स्थानीय रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।

रोजगार के अवसर और क्षेत्रीय विकास

धार्मिक पर्यटन केवल एक पर्यटन गतिविधि नहीं है, बल्कि यह स्थानीय और क्षेत्रीय विकास को भी प्रोत्साहित करता है। यात्रा, आवास, चिकित्सा, खाद्य सेवाएं, परिवहन और अन्य सहायक सेवाओं के क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं। तीर्थ स्थलों के आसपास की अर्थव्यवस्था में भी वृद्धि होती है, जैसे कि होटल, रेस्टोरेंट, और शॉपिंग केंद्रों में व्यापार में बढ़ोतरी होती है। इसके अतिरिक्त, फूलों, प्रसाद, वस्त्र, और अन्य धार्मिक सामग्री के उत्पादन और विक्रय से भी स्थानीय उद्योगों को मजबूती मिलती है।

धार्मिक पर्यटन के लिए राज्य सरकारों की भूमिका

राज्य सरकारों की भूमिका भी धार्मिक पर्यटन के विकास में महत्वपूर्ण है। धार्मिक स्थलों की संरचना और सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं का कार्यान्वयन किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने प्रयागराज में महाकुंभ मेले के आयोजन से संबंधित संरचनात्मक सुधार और सुरक्षा व्यवस्थाएं की हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि श्रद्धालु सुरक्षित और आरामदायक अनुभव प्राप्त कर सकें। साथ ही, राज्य सरकारें और केंद्रीय सरकार धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय सहायता, विज्ञापन अभियान, और प्रचार गतिविधियों का संचालन करती हैं।

2025 में भारत की कुल GDP और "मंदिर अर्थव्यवस्था" से योगदान का आंकलन

2025 में भारत की अनुमानित GDP ₹319 लाख करोड़ (4.26 ट्रिलियन डॉलर) होने की उम्मीद है।

अब, इसका 2.32% योगदान:

4.19ट्रिलियन(जीडीपी)×2.32100=9,72,280करोड़।₹4.19 ट्रिलियन (जीडीपी) \times \frac{2.32}{100} = ₹9,72,280 करोड़।

अब, कुंभ मेले से होने वाला योगदान:

अनुमानित ₹4 लाख करोड़ का व्यापार कुंभ मेले से होने की संभावना है, जो भारत की जीडीपी का 1% के बराबर होता है।

यदि हम दोनों आंकड़ों को जोड़ते हैं:

कुल योगदान = ₹9,72,280 करोड़ (मंदिर अर्थव्यवस्था का 2.32%) + ₹4 लाख करोड़ (कुंभ मेले का 1%) = ₹13,72,280 करोड़।

तो, 2025 में भारत की "मंदिर अर्थव्यवस्था" का कुल योगदान (कुंभ मेले सहित) लगभग ₹13,72,280 करोड़ होगा, जो भारतीय जीडीपी का 4.3% है।

इसका डॉलर में अनुमानित योगदान:

₹13,72,280 करोड़ = लगभग 0.18 ट्रिलियन डॉलर (180 बिलियन डॉलर)

इस प्रकार, 2025 में भारत की कुल GDP में "मंदिर अर्थव्यवस्था" का योगदान ₹13,72,280 करोड़ (0.18 ट्रिलियन डॉलर) होगा, जो कुल जीडीपी का लगभग 4.3% होगा।

अंततः, धार्मिक पर्यटन का महत्व

धार्मिक पर्यटन भारत की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण और अविभाज्य हिस्सा बन चुका है। न केवल यह पर्यटन क्षेत्र की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है, बल्कि यह छोटे और मझोले उद्योगों, रोजगार के अवसरों, और क्षेत्रीय विकास में भी योगदान देता है। कुंभ मेले जैसे आयोजनों के कारण धार्मिक पर्यटन के योगदान में और भी वृद्धि की संभावना है, जिससे भारतीय जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान होगा। इसके अलावा, मंदिरों और तीर्थ स्थलों से उत्पन्न होने वाली गतिविधियाँ भी भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करती हैं।

Adv. Krishna Baraskar,
(Advocate & Tax Consultant), Betul, MP.

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कहानी: अब कुंभ में बिछड़ते नहीं, मिलते हैं! धर्म और विज्ञान का अद्भुत मिलन!

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कृष्णा बारस्कर: हरिद्वार के महाकुंभ का मेला लगा हुआ था। लाखों की भीड़, चारों तरफ श्रद्धा और भक्ति का माहौल। इसी मेले में एक 12 साल का लड़का, रोहित, अपने परिवार से बिछड़ गया। रोहित घबराया हुआ इधर-उधर देख रहा था। तभी उसने देखा कि सामने एक बोर्ड पर लिखा था, "डिजिटल खोया-पाया केंद्र।"

रोहित को ज्यादा समझ नहीं आया, लेकिन वह साहस जुटाकर वहां चला गया। केंद्र में एक पुलिसवाला बैठा था, और उसके साथ बड़ी-बड़ी स्क्रीन लगी थीं। पुलिसवाले ने रोहित से पूछा, "बेटा, डरने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारे परिवार को ढूंढने में AI हमारी मदद करेगा।"

पुलिस ने रोहित की तस्वीर एक कैमरे में खींची और उसे तुरंत AI सिस्टम में अपलोड कर दिया। चंद सेकंड में एक जवाब आया—"रोहित का परिवार मेले के दूसरे छोर पर मौजूद है।"

रोहित को वहां ले जाने के लिए तुरंत पुलिस की गाड़ी तैयार की गई। जब रोहित अपने माता-पिता से मिला तो उसकी मां की आंखों में खुशी के आंसू थे।

इस घटना के बाद, रोहित के पिता ने कहा, "पहले के जमाने में लोग कहते थे कि कुंभ में बिछड़े लोग कभी नहीं मिलते। लेकिन अब, इस 'AI के जमाने' ने साबित कर दिया कि कुंभ में बिछड़े लोग कुंभ में ही मिल सकते हैं।"

तभी पास में खड़ा एक साधु मुस्कुराते हुए बोला, "भई, ये तो विज्ञान और श्रद्धा का संगम है।"

सीख:

तकनीक अगर सही दिशा में इस्तेमाल हो, तो बड़े से बड़े संकट को हल किया जा सकता है। आधुनिक युग की तकनीक और मानवता का मेल हमेशा चमत्कार करता है।

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‘‘बहुमत’’ का निर्णय ‘नैतिक’ रूप से कितना ‘‘बलशाली’’?

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एक साथ ‘‘तीन तलाक’’ के संदर्भ में माननीय उच्चतम् न्यायालय द्वारा दो के विरूद्ध तीन के बहुमत से ऐतहासिक फ़ैसला देकर लम्बे समय से चली आ रही बहस को विराम देते हुए ‘‘त्वरित तीन तलाक’’ को असंवैधानिक करार देने के साथ साथ तुरन्त ही एक अन्य बहस को भी अवसर प्रदान कर दिया हैं। वह इसलिए कि ऐसे महत्वपूर्ण संवेदनशील मुद्दे पर तीन दो के बहुमत का निर्णय संविधान के तहत तो बंधनकारी हैं, जिसने (सिवाए पुर्नावलोकन की स्थिति को छोड़कर) मुद्दे को अंतिम रूप से निर्णीत कर दिया हैं। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में नैतिक बल के आधार पर क्या यह निर्णय उतना ही प्रभावी माना जायेगा? यह निर्णय ऐसा प्रश्न पैदा करने का एक अवसर आलोचको को देता हैं। उच्चतम् न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उक्त मामले की सुनवाई प्रारंभ कर मुस्लिम महिलाओं के बराबरी (समानता) से जीने के संवैधानिक अधिकार पर ‘‘तीन तलाक’’ द्वारा जो अतिक्रमण किया जा रहा था, उस बाधा को समाप्त कर, मुस्लिम महिलाओं को एक बड़ी राहत प्रदान की हैं। उनके असहय जीवन में तनाव को समाप्त कर उनमें नव जीवन का संचार किया हैं। इस ऐतहासिक निर्णय ने एक और विवाद समान सिविल संहिता के संबंध में कानून बनाने का रास्ता भी साफ कर दिया हैं। वैसे भी जब आपराधिक न्यायशास्त्र, मुस्लिम सहित समस्त भारतीयो पर लागू हैं, तब सिविल सहिंता के मामले में मुस्लिम समाज अलग क्यों रखा जाना चाहिए?
लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया निश्चित रूप से बहुमत के आधार पर संचारित होती हैं। वह बहुमत भी पूर्ण बहुमत न होकर उस प्रक्रिया में भाग लेने वाले व्यक्तियों के बीच का ही होता हैं। अर्थात् ऐसी प्रक्रिया में भाग लेने के लिये अधिकृत रूप से भागीदार होने वाले समस्त पात्र व्यक्तियांे की संख्या का बहुमत गिनने की व्यवस्था हमारी वर्तमान लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नहीं हैं। मतलब साफ हैं कि कुल मतो का 50 प्रतिशत से अधिक की संख्या के मत से होने वाले निर्णय को ही बहुमत मानने की व्यवस्था हमारी लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नहीं हैं। माननीय उच्चतम् न्यायालय के ऐसे कुछ, बहुत ही संवेदनशील प्रकरणों में भी ऐसी ही प्रक्रिया का लागू होना क्या एक श्रेष्ठ न्यायिक प्रक्रिया/प्रणाली मानी जानी चाहिए? 
कानूनी रूप से संवैधानिक एवं बंधनकारी इस कानूनी व्याख्या को छोड़कर निम्न तीन बिन्दु इस निर्णय को अन्यथा व नैतिक रूप से कमजोर बनाते हैं। एक, ऐसा निर्णय जो समाज विशेष या धर्म विशेष अर्थात् अल्पसंख्यक मुसलमानों के इस्लाम धर्म केे व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) को अक्षुण्ण मानते हुये मात्र आधे अंक से ज्यादा वाले बहुमत के निर्णय के कारण दिया गया हैं। वह नैतिकता के बल के साथ उक्त विवाद को तार्किक रूप से पूर्ण स्पष्टता के साथ अंतिम रूप से निर्णीत कैसे कर पायेगा। आप को मालूम ही है, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में कोई भी निर्णय सर्व सम्मति से ही लागू होता हैं। पांच सदस्यों में से किसी भी एक सदस्य के वीटो के कारण बहुमत के निर्णय को भी लागू नहीं किया जा सकता हैं। क्या ऐसे ही निर्णय की परिस्थिति इस प्रकार के अल्प लेकिन अतिसंवेदनशील विषयों में उच्चतम् न्यायालय की निर्णय प्रणाली पर भी लागू नहीं किया जाना चाहिए? दूसरा उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय में जब स्वयं माननीय न्यायालय ने यह ध्यान रखा कि उक्त मुद्दे की सुनवाई पांच विभिन्न धर्मो के न्यायमूर्तियॉं द्वारा (जिसमें कोई महिला जज शामिल नहीं थी) करें ताकि किसी भी प्रकार की अल्प शंका का भी वातावरण न बन सके। इन बरती गई सावधानियों के बावजूद मुस्लिम धर्मावलम्बी माननीय न्यायमूर्ति ने मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) से संबंधित प्रकरण में, ही बहुमत के निर्णय से अपने को अलग रखा, तब क्या यह स्थिति इस निर्णय को और भी कमजोर नहीं कर देती हैें? तीसरा मुख्य न्यायाधीश जो इस बंेच के भी प्रमुख थे, ने भी अपने को बहुमत के निर्णय से अलग रखा हैं। इसी कारण से मैंने इसे ‘‘आधे अंक के बहुमत का निर्णय’’ ऊपर पेरा में लिखा हैं। यह भी पहली बार देखने को मिला व क्या यह उचित हैं कि किसी विशेष धर्म पर्सनल लॉ से जुड़े मामले में उच्चतम् न्यायालय ने विभिन्न धर्मावलम्बीयों के न्यायमूर्तियों की (धर्म के आधार पर?) बेंच बनाई। पूर्व में शाहबानो प्रकरण में भी जिसमें मुस्लिम महिला के गुजारे के अधिकार का मामला था उसमे भी ऐसा नहीं हुआ था जहॉ समस्त न्यायमूर्ति जो विभिन्न धर्मो के नहीं थे और मुस्लिम धर्म के कोई भी न्यायमूर्ति नहीं थे। तब सर्वसम्मति से शाहबानो के पक्ष में निर्णय दिया गया था जिसे बाद में संसद ने कानून बनाकर निष्प्रभावी कर दिया था। 
न्याय का मूल सिद्धांत यह भी हैं कि न केवल न्याय मिलना चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ महसूस भी होना चाहिए। अर्थात परसेप्शन (अनुभूति) का ‘‘न्याय क्षेत्र’’ में बहुत महत्वपूर्ण स्थान हैं जिसका वर्त्तमान निर्णय में अभाव सा महसूस होता हैं। उपरोक्त सब कारणों से यहॉं यह प्रश्न पैदा होता हैं कि नैतिकता के धरातल पर भी यह निर्णय क्या उतना ही बलशाली माना जायेगा जितना कानूनी आधार पर? ऐसी स्थिति के कारण यह निर्णय मुस्लिम समाज के एक वर्ग को क्या यह अवसर प्रदान नहीं कर देता हैं कि आगे किसी बड़ी बेंच में मामला रेफर किया जाय, जहॉं कम से कम दो तिहाई बहुमत से स्पष्ट निर्णय हो। जब हमारे संविधान में संसद में सामान्य बहुमत न होने पर सरकार गिर जाती हैं लेकिन वह सामान्य बहुमत वाली सरकार जब कोई संविधान संशोधन बिल लाती हैं तो उसे दो तिहाई बहुमत से पारित करना होता हैं। ठीक इसी प्रकार की दो तरह के बहुमत की व्यवस्था न्यायपालिका की उपरोक्त स्थिति में भी क्यो नहीं होनी चाहिए? ऐसी व्यवस्था होने पर ही ऐसे संवेदनशील मुद्दे के निर्णय पर से धुंध की छाया हटकर यर्थाथ स्थिति स्पष्ट हो सकेगी और एक स्पष्ट निर्णय पूरे मुस्लिम कौम को कानून के साथ-साथ पूरे नैतिक बल के साथ मानने के लिये बाध्य होना पडे़गा। अभी अभी आया माननीय उच्चतम् न्यायालय की सात सदस्यीय बेंच का निजता का अधिकार के मामले में आम सहमति का निर्णय उक्त मत की पुष्टि ही करता हैं।
इस निर्णय के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश ने सिंगल बेंच के रूप में अभी तक जो निर्णय दिये हैं वे कितने सही होगंे, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता हैं, क्योंकि उनके विचार (ओपिनियन) को अन्य तीन न्यायमूर्तियों ने उक्त एक मामले में ही स्वीकार नहीं किया हैं।
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भविष्य का सम्बन्ध वर्तमान से

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  इतिहास गवाह है इन्सान ने जब भी किसी विपदा ( विपत्ति ) का सामना अगर किया है तो उसका जिम्मेदार वो खुद होता है ! उसी के  द्वारा की हुई गलती का भुगतान वो बाद मै करता है ! क्युकी जब हम कोई भी फ़ेसला लेते हैं तो हमे सिर्फ वर्तमान का ही सुख दिखता है और उसी  ख़ुशी का भुगतान हमे भविष्य मै  दर्द सह कर देना होता है ! चलो आज हम इतिहास के कुच्छ एसे ही वाकये पर नज़र डालते हैं जिससे सारी दुनियां अच्छे से परिचित है ! अब रामायण को ही ले लेते हैं कोंन नहीं जानता रामायण को , इनके किरदारों को मेरे ख्याल से इसकी पहचान बहुत से  लोगों को है ! ये हमारे देश का बहुत पावन  ग्रन्थ है ! हम इसे पड़ते हैं इसकी पूजा करते हैं और दशहरे के दिनों मै हर घर मै इसकी चर्चा सुनी जा सकती है ! रामायण हमे इन्सान के हर रूप से पहचान करवाने का मोका देती है ! की किस तरह चाल  चल के केकई ने राम को बनवास दिया इससे उसकी चालाकी का पता चलता है फिर चोरों भाइयो का एक दुसरे के प्रति समर्पण , सीता का पति के लिए त्याग , पिता का बेटे के प्रति प्यार , रावन का लालच आदि ! रामायण मै  इन्सान के हर चरित्र का   चित्रण बखूबी से  दिखाया गया है ! हमारी हर पीड़ी उसे पड़ती है उसका बखान भी करती है ! और फिर उसे बहुत प्यार से समेट के रख भी देती है ! हर एक के साथ बैठ कर श्री राम . सीता माँ , लक्ष्मण , भारत के बारे मै बात करते हैं की उन्होंने कितना बड़ा त्याग किया लक्ष्मण ने श्री राम का कितना  साथ दिया पर जिस मकसद को पूरा करने के लिए श्री राम , कृष्ण ने ये लीलाएं रचाई तो हमने उन्हें अपने जीवन मै कहाँ ग्रहण किया ! अरे ............ जो खुद अंतर्यामी है हर चीज़ जिसके बस मै हो , जिसकी रज़ा से एक पत्ता भी नहीं हिल पाता हो उसे ये सब कष्ट सहने की जरुरत ही क्या थी ! ये सब हमारे लिए किया गया प्रयास था की इन्सान ............. आगे जब भी कोई कदम उठए तो वो रामायण , महाभारत और बड़े बड़े गर्न्थों से सबक ले सके ! उसने तो हर कदम पर हमारा साथ देना चाहा पर हमने कभी कोशिश ही नहीं की ! हमने उसे सिर्फ और सिर्फ हमारा धरम का  नाम दे कर ही संभाल लिया ! अगर हम सच मै रामायण और महाभारत जेसे ग्रंथों को सम्मान देना चाहतें हैं तो उन सभी मै घटित अच्छी - अच्छी  बातों का हमे अनुसरण करना ही होगा तभी हमारे ग्रन्थ सार्थक हो पाएंगे  ! वर्ना इन ग्रंथों को सिर्फ पूजना और सम्मान देना अपने आप से ही नहीं पूरी सृष्टी से धोखा होगा अगर हम इन से कोई सीख न ले पायें तो .............

                गाँधी जी ने बहुत खुबसूरत बात कही थी ........................
    भूल करके सिखा जाता है ,
              लेकिन इसका मतलब  यह नहीं
                          
 कि जीवन भर ..  भूल ही की जाये !

                                                                           अब देखो न अमेरिका ने अपने बल पर कभी किसी देश मै तो कभी किसी देश मै अपना अधिकार जमाना चाहा जिसका भुगतान उसे वर्ड ट्रेड सेंटर .......... के रूप मै देना पड़ा ! अब पाकिस्तान को ही ले लो तालिबानों को शरण दी की वो उनकी मदद करेंगे पर नतीजा ये हुआ की आज वो ही इन पर भारी  पड़ रहें हैं उनके ही देश मै रह कर उन्ही का खून बहाने से नहीं घबरा रहेँ हैं वो , उनका मकसद न जाने क्या है पर नाम जेहाद का लेते हैं जिसका इंसानियत से दूर - दूर तक  कोई परिचय ही न हो तो वो इस शब्द के मतलब को भला क्या जान पाएंगे वो इन्सान की भावना को केसे समझ सकतें हैं ! सब कुच्छ तो इन्सान से ही जुड़ा है  प्यार , नफरत , आक्रोश , घमंड और समर्पण बस हमे अपने अन्दर से अच्छे - अच्छे संस्कारों को उभारना है अपने अन्दर संयम लाना है ! अगर इन्सान ही नहीं रहेगा तो धर्म का अर्थ ही कहाँ रहेगा क्या इतनी छोटी सी बात भी हम नहीं समझ पा रहें ! अब हम अपने देश को ही लेते हैं हमारे देश मै होने वाली छोटी - बड़ी घटना के जिम्मेदार  क्या सिर्फ वो लोग हैं जो वारदात करते हैं नहीं ............ क्युकी हमारी थोड़ी सी की गई उस समय की लापरवाही ही उस वारदात का कारण बनती है ! तो अगर हम वर्तमान मै ठीक   से काम करते हैं तो हमारा भविष्य बहुत हद तक सुरक्षित हो सकता है क्युकी बिना वर्तमान के भविष्य संभव ही नहीं है तो क्यु न हम अपने इतिहास  के पन्नों से ही कुच्छ न कुच्छ सीखते रहेँ और उसे अपने जीवन मै ढ़ालते चलें  ! 
                           संसार मै न तो कोई शत्रु है न कोई मित्र !
                उनके प्रति  हमारे विचार मित्र और शत्रु का अंतर  करते हैं !
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अपने अपने क्रास

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                                                        परम हंस योगानंद ने क्रिसमस के अवसर पर अपने अमेरिका श्रोतओं से कहा था की ' इस ब्रह्माण्ड मै क्राइस्ट- चेतना  विशेष रूप से सक्रीय हो जाती है ! सच्चे  साधक मै विश्वयापी क्राइस्ट की भावना जन्म लेती है ! ध्यान के माध्यम से अज्ञान के बादल छितरा  जाते हैं और बंद आँखों के पीछे के अंधकार मै देवी आलोक के दर्शन होने लगते हैं ! जन - जन मै ये प्रकाश उदित हो यही इस पर्व का उद्देश्य  है !' प्रभु का अंश लेकर जब - जब कोई महान आत्मा इस धरती पर उतरती है , उसका स्वागत  करने के लिए हमे अपने दिल के दरवाजे खोल कर रखने होंगे ! तभी उस चेतना को हम आत्मसात कर पाएंगे ! ईसा मसीह ने कहा है ................' Behold I stand at the door and knock , If any man can hear my voice and open the door , I will come into him sup with him he with me '  अर्थात देखो मै तुम्हारे द्वार  पर खड़ा दस्तक दे रहा हु ! यदि कोई मेरी आवाज़ सुन कर द्वार खोलेगा तो मै अन्दर आकर उसके साथ आ कर भोजन करूँगा और वो मेरे साथ !
                राम और कृष्ण के आह्वान को भी शबरी ने सुदामा ने , विदुर ने सुना था और उनका सानिध्य पाने का सोभाग्य पाया ! ' बड़े दिन ' के झिलमिलाते उत्सव मै जन्म की बधाइयों के बीच से ईसा मसीह की क्रास पर कीलित छवि की करूणा बार - बार उभर कर आ जाती है ! सर्वशक्तिमान होते हुए भी अवतारों , महान आत्माओ को साधारण जन की तरह अपने - अपने क्रास पर लटकना पड़ता है ! यीशु की महिमा केवल मानव जाती के उद्धारक और ईश्वर के पुत्र के रूप के कारण ही नहीं , बल्कि ' सहनशीलता ' की साकार मूर्ति की वजह से भी है ! बाइबल मै कहा गया है ..............की इश्वर हम पर कभी इतना बोझ  नहीं डालता , जिसे हम सहन न कर सके ! उस दुख से  बचने के रास्ते होते हैं , पर बचाव अस्थाई ही होता है ! टाल जाने पर भी वही स्थिति दुबारा आ खड़ी होती है ! इसलिए बचने की कोशिश से कहीं  बेहतर है , उसको पार कर लेना , वश मै कर पाना ! यीशु पर भी जब पीड़ा का समय आया तो उन्होंने कहा ' प्रभु मुझे इस समय से बचाओ फिर साथ ही कहा मै इसी समय के लिए ही तो आया था ' दुख चाहे दूसरों की मुक्ति के लिए सहा जाये , चाहे आत्मविकास  के लिए या दुसरो के कर्मो के कारण सहना पड़े , ईश्वर का प्रसाद समझकर  धीरज से जो व्यक्ति सह लेता है वही कुंदन बनता है ! दुख हमारी साधना , मुक्ति और आस्था की परीक्षा है ! दुख का मातम मनाने , उसे सँभाल कर रखने से वह दुगना हो जाता है ! कष्ट के समय छोटे - छोटे सुखों को याद करने से दुख का प्रभाव कम होता है धेर्य से दुखों  को सहने के बाद पुनरुत्थान मिलता है , जेसे ईसा मसीह को मिला !
                          बुद्धिमान व्यक्ति सदेव आत्मसंतुष्टी  रूपी लो को
                            अपनी इच्छाओं की आहुती से प्रकाशमान
                                     बनाये रखते हैं !
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‘‘रामजी’’ से दूर रहो, लोग सांम्प्रदायिक, समझेंगे?

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                                         मैं बहुत छोटा सा था तभी से मैने अपने बड़े-बूढ़ो को एक-दूसरे से मिलते समय सम्बोधन में ‘‘जय रामजी की, राम-रामजी’’ कहते हुए सुना है। मेरे पिता की मेरे पास आज सिर्फ एक ही विरासत है और वो है ‘‘राम‘‘ नाम। इस विरासत पर मैने कभी अपनी निज स्वार्थ या जरूरतो को तरजीह नहीं दी। ‘‘जय रामजी की या राम-राम’’ कथन ‘हाय-हैलो’ जैसा सम्बोधन न होकर हमारे गौरवशाली इतिहास और सांस्कृतिक विरासत का ऐसा प्रतिक है जो हर भारतीय के कण्ठ में रचा-बसा है और हम जब भी किसी से मिलते है, अनायास ही मुह से निकल जाता है। ‘‘जय रामजी की’’ सत्य पे असत्य, राक्षसो पर देव, धर्म पर अधर्म की जीत का हमें स्मरण करके सदआचरण के लिए संकल्पित होने हेतु प्रेरित करता है। ‘‘राम’’ तो प्रातः उठने से लेकर सोने तक मेरे साथ एकांगी होकर सदैव साथ होता है। ’’राम’’ भारतवंशी ही नहीं दुनिया के प्रत्येक मनुष्य के लिए अपने शरीर का तीसरा भाग है। शरीर का दाया भाग स्त्री, बाया भाग पुरूष और तीसरा अदृष्य भाग ‘‘राम’’ एक चरित्र, आदर्श, जीवनचर्या, संस्कार, संस्कृति, परम्परा, धर्म और हमारी आत्मा के प्रतीक रूप में। अगर हमें कोई कहे की ‘‘जय रामजी की’’ न कहा करो लोग साम्प्रदायिक कहेंगे। तो आप ही सोचिये हमारी अंतर्रात्मा की प्रतिक्रिया क्या होगी?

’’जय रामजी की’’ ना कहा करो-
                            हम नित प्रातः 5.00 बजे सुबह योगऋषि स्वामीं रामदेव बाबा की कृपा से उनके शिष्य द्वारा संचालित योग कक्षा में योग करते है। मेरे सामने एक समय एक तब एक विडम्बना खड़ी हो गई जब मेरे द्वारा ‘‘जय रामजी की‘‘ उद्बोधन पर मेेरे योग प्रशिक्षक ने मुझे यह कहकर उद्बोधित किया कि ‘‘सार्वजनिक जीवन में ‘जय रामजी की‘‘ शब्द का उपयोग न किया करो साम्प्रदायिक लगता है। उस समय मेरे शरीर में एक दम करंट दौड़ गया मुझे ऐसा लगा मानो मुझे स्वास रोकने के लिए कह दिया हो। एक छण में मेरे मन में हजारो सवाल खड़े हो गये, मैं सोचने लगा कि क्या यह सम्भव है कि मैं ’श्रीराम’ को छोड़ पाऊंगा? मैं तो अपने आदत के चलते अपने मुस्लिम और ईसाई भाईयों को भी इसी शब्द से उद्बोधित करता हूं उन्हे कोई असहजता महसूश नहीं होती। यहां ‘‘योग शिक्षक’’ को इस शब्द में ‘‘साम्प्रदायिकता’’ जैसा ऐसा क्या दिखा? कहीं योगऋषि स्वामीं रामदेवजी के किसी नये अभियान के तहत उनके द्वारा दिया हुआ निर्देश तो नहीं है? मेरे दिल में आया की आज से ‘सलामवालेकुम‘‘ या गुड मार्निंग बोलू जो साम्प्रदायिक न लगे पर तब तो मैं चुपचाप अपनी कसक को दबा गया। पर सांय को जब टीवी देखी तो उक्त घटना समझ आयी। वास्तव में बाबा जी अपने अभियान में सबको पूर्ण रूप से स्वस्थ करने, और राजनीति को शुद्ध कर’’ देश निर्माण में जुटे है। उनके इस अभियान में भारी संख्या में मुस्लिम दर्मावलंबी भी सहयोग कर रहे है। उक्त घटना के एक दिन पूर्व बाबा की सभा में मुस्लिम समुदाय का एक राष्ट्रीय नेता स्वामींजी के कार्यक्रम में शामिल हुआ था। स्वामीं जी के अभियान में मुस्लिम समुदाय की भागीदारी देखकर ही शायद हमारे योग शिक्षक के मन में आया की ’’श्री राम’’ हिन्दू समुदाय से सबंधित थे इसलिए ‘‘जयरामजी की‘‘ शब्द का इस्तेमाल साम्प्रदायिक लगेगा। ऐसा हमारे सभ्य सुशिक्षित और योग्य ‘‘योग शिक्षक‘‘ के मन में आया बड़ी विडम्बना है।
                              हमारे द्वारा तथ्य साफ करने और अपने विवेक और अनुभव के बाद अब हमारे योग शिक्षक तो अब सामान्य हो गये, अब उन्हे ‘राम’ से कोई परहेज नहीं है। अब मैं उनका चहेता योगी विद्यार्थी हूं।
’’हिन्दू-सम्मेलन में ‘राम‘ को न बुलाओं’’-
                                          दिसम्बर मास में पूरे देश में ‘‘हिन्दू महासम्मेलन धर्म-सभा और यज्ञ’’ होने जा रहे है। जिसका उद्वेश्य हिन्दू समाज पर विभिन्न जांच एजेंसियों के माध्यम से लगाये जा रहे मनगड़त आरोप और अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण हेतु समाज में जनजागृति लाना है। जिसमें हमारे जिले के एक तहसील का प्रभार मेरे भी कांधे पर है इसीकी तैयारियों के लिए तहसील में आयोजन समिति के प्रमुख हेतु श्रीराम कथाओं, रामनवमीं, यज्ञ, प्रभात फेरी, भण्डारों जैसे विभिन्न धार्मिक आयोजनों के अनुभवी व्यक्ति को दायित्व सौंपा गया। उनका नाम तो नहीं लूंगा लेकिन हमने उनका दूसरा नामकरण मनमोहनजी के रूप में किया है। उनके अनुसार उनके साथ कोई बाधा नहीं हैं और इस पूनित कार्य में समाज का प्रत्येक वर्ग उनके साथ काम करेगा।
                                    तीसरी ही बैठक में न जाने क्या परिवर्तन हुआ तो जब भाई साहब से चल रहे कार्य का विवरण जानना चाहा तो वे उठे और कहने लगे कि हो रहे ‘‘हिन्दू महासम्मेलन‘‘ की कार्यसमिति का संचालन तो मैं करना जारी रखूंगा। पर इसका संचालन मैं तभी अच्छे से कर पाऊंगा जब इसमें लिए जा रहे विषय परिवर्तित कर दिया जाए। उनका कहना था कि उनके साथ कांग्रेसी भी है जो ‘श्रीरामजी‘ से सम्बंधित प्रत्येक आयोजन में सहभागिता तो करते है पर पार्टी के शीर्ष में ‘श्रीराम‘ और उससे संबंधित मुद्दो पर विरोधी रणनीति के कारण वो मंदिर बनाने से सम्बंधित किसी विषय को स्वीकार नहीं करेंगे। अब यहां भी मेरे सामने अजीब स्थिति आ गई।
                                        ‘‘यह तो वहीं बात हुई कि हम चिल्ला-चिल्लाकर यह कह सकते है कि हम अपने मॉं बाप को बहुत चाहते है पर उन्हे रहने के लिए अपने साथ एक कमरा नहीं दे सकते, एक बिस्तर नहीं बिछा सकते।‘‘ श्रीराम की पूजा तो कर सकते है पर उनके जन्मस्थान पर एक मंदिर निर्माण की सहमति नहीं दे सकते। इन भाई साहब को सद्बुद्धि आये इसका उपाय भी हमारे पास था हमारे साथ कुछ स्थानीय जागृत मुस्लिम भाई शामिल हुए जो स्वेच्छा से इस पूनित कार्य को तन-मन-धन से आगे बढ़ाने के लिए सहर्ष तैयार हो गये। वहां यह तो साफ हो गया कि यदि इस मुद्दे में राजनीति बीच में न हो तो मंदिर तो हमारे मुस्लिम भाई ही बना देंगे।
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ताजमहल...........

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From: PARDEEP K AGGARWAL <capkaggarwal@gmail.com>
Date: 2010/12/9
Subject: Must read ताजमहल...........
To: capkaggarwal@consultant.com



बी.बी.सी. कहता है...........
ताजमहल...........
एक छुपा हुआ सत्य..........
कभी मत कहो कि.........
यह एक मकबरा है..........

राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थीं....



प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ....
ज़रा सोचिये....!!!!!!
कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत,शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से एक भवन, "तेजो महालय" को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ को क्यों......?????  
तथा......
इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मानी से क्यों........???????



आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से,,,,,,,,
रूहें लिपट के रोटी हैं हर खासों आम से.....
अपनों ने बुना था हमें,कुदरत के काम से,,,,
फ़िर भी यहाँ जिंदा हैं हम गैरों के नाम से......



PARDEEP KUMAR AGGARWAL









cid:part1.00050203.06090602@oracle.com

आतंरिक पानी का कुंवा............

cid:part2.06030804.06010503@oracle.com
ताजमहल और गुम्बद के सामने का दृश्य 
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गुम्बद और शिखर के पास का दृश्य.....

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शिखर के ठीक पास का दृश्य.........
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आँगन में शिखर के छायाचित्र कि बनावट.....
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प्रवेश द्वार पर बने लाल कमल........
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ताज के पिछले हिस्से का दृश्य और बाइस कमरों का समूह........
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पीछे की खिड़कियाँ और बंद दरवाजों का दृश्य........
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विशेषतः वैदिक शैली मे निर्मित गलियारा.....
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मकबरे के पास संगीतालय........एक विरोधाभास.........
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ऊपरी तल पर स्थित एक बंद कमरा.........
cid:part12.06040805.05030906@oracle.com
निचले तल पर स्थित संगमरमरी कमरों का समूह.........
cid:part13.07080501.08010005@oracle.com
दीवारों पर बने हुए फूल......जिनमे छुपा हुआ है ओम् ( ॐ ) ....
cid:part14.06040703.01080607@oracle.com
निचले तल पर जाने के लिए सीढियां........
cid:part15.06000608.05080409@oracle.com  
कमरों के मध्य 300फीट लंबा गलियारा..
cid:part16.05080508.04010801@oracle.com  
निचले तल के२२गुप्त कमरों मे सेएक
कमरा...cid:part17.07030700.04030709@oracle.com  
२२ गुप्त कमरों में से एक कमरे का आतंरिक दृश्य.......
cid:part18.09000803.06080003@oracle.com  

ताजमहल का आकाशीय दृश्य......
अन्य बंद कमरों में से एक आतंरिक दृश्य..   cid:part19.05050106.09010306@oracle.com  
एक बंद कमरे की वैदिक शैली में
निर्मित छत......
cid:part20.09030504.02030904@oracle.com  
ईंटों से बंद किया गया विशाल रोशनदान .....
cid:part21.09040606.07000907@oracle.com  
दरवाजों में लगी गुप्त दीवार,जिससे अन्य कमरों का सम्पर्क था.....
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बहुत से साक्ष्यों को छुपाने के लिए,गुप्त ईंटों से बंद किया गया दरवाजा......
cid:part23.03050306.09070004@oracle.com  
बुरहानपुर मध्य प्रदेश मे स्थित महल जहाँ मुमताज-उल-ज़मानी कि मृत्यु हुई थी.......
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बादशाह नामा के अनुसार,, इस स्थान पर मुमताज को दफनाया गया......... 
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अब कृपया  इसे पढ़ें .........

प्रो.पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि........

"ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था"

प्रो.ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस
बात में विश्वास रखते हैं कि,--
सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने बनवाया था.....
ओक कहते हैं कि......



ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था.


अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया था,,
=>शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी "ने अपने "बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000  से ज़्यादा पृष्ठों मे लिखा है,,जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद, बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके ०६ माह बाद,तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया गया फ़िर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए,आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे ,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे.
इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा
जयसिंह को दिए गए थे.......
=>यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और भवनों का प्रयोग किया जाता था ,
उदाहरनार्थ हुमायूँ, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे दफनाये गए हैं ....
=>प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है---------
="महल" शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में
भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता...
यहाँ यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है......वह कम से कम दो प्रकार से तर्कहीन है---------

पहला -----शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था,,,बल्कि उसका नाम मुमताज-उल-ज़मानी था ...

और दूसरा-----किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग (मुम) को छोड़ दिया जाए,,,यह समझ से परे है...
प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि----
मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की पुष्टि नही करता है.....
इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......
तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान् शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----


 ==>न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़ के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष पुराना है...
==>मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......

==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था......

==>फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था.......

प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि,ताजमहल विशाल मकबरा न होकर विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है....... 


आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं,जो आम जनता की पहुँच से परे हैं 

प्रो. ओक., जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति,त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं प्रयोग की जाती हैं.......

==>ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है,, यदि यह सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही टपकाया जाता,जबकि प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की व्यवस्था की जाती है,फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या मतलब....????

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ताजमहल का सच

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 Tajmahal ka Sach   99(http://raipurprahari.blogspot.com/p/tajmahal-ka-sach.html)
बी.बी.सी. कहता है...........
ताजमहल...........
एक छुपा हुआ सत्य..........
कभी मत कहो कि.........
यह एक मकबरा है..........


ताजमहल का आकाशीय दृश्य......




आतंरिक पानी का कुंवा............

ताजमहल और गुम्बद के सामने का दृश्य
गुम्बद और शिखर के पास का दृश्य.....

शिखर के ठीक पास का दृश्य.........
आँगन में शिखर के छायाचित्र कि बनावट.....

प्रवेश द्वार पर बने लाल कमल........
ताज के पिछले हिस्से का दृश्य और बाइस कमरों का समूह........
पीछे की खिड़कियाँ और बंद दरवाजों का दृश्य........
विशेषतः वैदिक शैली मे निर्मित गलियारा.....
मकबरे के पास संगीतालय........एक विरोधाभास.........

ऊपरी तल पर स्थित एक बंद कमरा.........


निचले तल पर स्थित संगमरमरी कमरों का समूह.........

दीवारों पर बने हुए फूल......जिनमे छुपा हुआ है ओम् ( ॐ ) ....

निचले तल पर जाने के लिए सीढियां........

कमरों के मध्य 300फीट लंबा गलियारा..
निचले तल के२२गुप्त कमरों मे सेएककमरा...
२२ गुप्त कमरों में से एक कमरे का आतंरिक दृश्य.......


अन्य बंद कमरों में से एक आतंरिक दृश्य..
एक बंद कमरे की वैदिक शैली में
निर्मित छत......

ईंटों से बंद किया गया विशाल रोशनदान .....


दरवाजों में लगी गुप्त दीवार,जिससे अन्य कमरों का सम्पर्क था.....

बहुत से साक्ष्यों को छुपाने के लिए,गुप्त ईंटों से बंद किया गया दरवाजा......


बुरहानपुर मध्य प्रदेश मे स्थित महल जहाँ मुमताज-उल-ज़मानी कि मृत्यु हुई थी.......


बादशाह नामा के अनुसार,, इस स्थान पर मुमताज को दफनाया गया.........



अब कृपया इसे पढ़ें .........

प्रो.पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि........

"ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था"

प्रो.ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस
बात में विश्वास रखते हैं कि,--

सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने बनवाया था.....


ओक कहते हैं कि......

ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था.


अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया था,,

=>शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी "ने अपने "बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000 से ज़्यादा पृष्ठों मे लिखा है,,जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद, बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके ०६ माह बाद,तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया गया फ़िर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए,आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे ,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे.

इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा
जयसिंह को दिए गए थे.......

=>यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और भवनों का प्रयोग किया जाता था ,
उदाहरनार्थ हुमायूँ, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे दफनाये गए हैं ....

=>प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है---------

="महल" शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में
भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता...
यहाँ यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है......वह कम से कम दो प्रकार से तर्कहीन है---------

पहला -----शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था,,,बल्कि उसका नाम मुमताज-उल-ज़मानी था ...

और दूसरा-----किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग (मुम) को छोड़ दिया जाए,,,यह समझ से परे है...

प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि----
मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की पुष्टि नही करता है.....



इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......
तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान् शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----

==>न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़ के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष पुराना है...


==>मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......


==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था......


==>फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था.......


प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि,ताजमहल विशाल मकबरा न होकर विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है.......

आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं,जो आम जनता की पहुँच से परे हैं

प्रो. ओक., जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति,त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं प्रयोग की जाती हैं.......

==>ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है,, यदि यह सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही टपकाया जाता,जबकि प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की व्यवस्था की जाती है,फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या मतलब....????



राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थीं....


प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ....


ज़रा सोचिये....!!!!!!


कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत,शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से एक भवन, "तेजो महालय" को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ को क्यों......?????
तथा......

इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मानी से क्यों........???? ???


आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से,,,,,,,,
रूहें लिपट के रोटी हैं हर खासों आम से.....
अपनों ने बुना था हमें,कुदरत के काम से,,,,

फ़िर भी यहाँ जिंदा हैं हम गैरों के नाम से......
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