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से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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धर्म, न्याय और मर्यादा — जस्टिस बी.आर. गवई विवाद का विधिक विश्लेषण

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लेखक – अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर:

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस बी.आर. गवई के एक कथन को लेकर व्यापक विवाद खड़ा हुआ।
मामला खजुराहो स्थित जवरी मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति पुनर्स्थापन से जुड़ी जनहित याचिका का था,
जिसकी सुनवाई के दौरान न्यायालय की टिप्पणी —

यदि आप सच्चे भक्त हैं, तो अपने भगवान से ही प्रार्थना करें कि वह इस कार्य को पूरा करें”

सोशल मीडिया पर “हिंदू धर्म का अपमान” के रूप में प्रस्तुत की गई।

इस टिप्पणी ने प्रश्न उठाया
क्या किसी न्यायाधीश के ऐसे कथन पर भारतीय दंड विधान (अब भारतीय न्याय संहिता, 2023) की धाराएँ लागू हो सकती हैं?
या फिर न्यायिक प्रतिरक्षा (Judicial Immunity) के कारण वे कानून की पकड़ से बाहर हैं?

🔹 विधिक पृष्ठभूमि — न्यायिक प्रतिरक्षा का सिद्धांत

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 217, तथा Judges (Protection) Act, 1985 के अंतर्गत
न्यायाधीशों को उनके न्यायिक कार्य से संबंधित कथनों और आदेशों पर मुकदमे से सुरक्षा प्राप्त है।
यह सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि —

 “न्यायिक स्वतंत्रता तभी संभव है, जब न्यायाधीश भयमुक्त होकर अपने विचार व्यक्त कर सके।”

इसलिए, जब तक संसद या राष्ट्रपति-स्तर पर महाभियोग (impeachment) की कार्यवाही न हो, किसी न्यायाधीश के खिलाफ BNS की धाराएँ लागू नहीं की जा सकतीं।

अतः जब तक कोई न्यायाधीश व्यक्तिगत दुर्भावना, भ्रष्टाचार या प्रत्यक्ष द्वेष से प्रेरित न हो, उसके कथन पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

🔹 प्रासंगिक धाराएँ — भारतीय न्याय संहिता (BNS) के अंतर्गत संभावित चर्चा

धारा विषय न्यायिक मूल्यांकन:

295 धार्मिक स्थान या प्रतीक का अपमान न तो कोई मूर्ति नष्ट की गई, न कोई अपवित्र कार्य हुआ; अतः अप्रासंगिक।
296 धार्मिक सभा या पूजा में बाधा कथन न्यायालय में हुआ, किसी धार्मिक समारोह में नहीं — लागू नहीं।
297 धार्मिक भावनाएँ आहत करने के इरादे से अपमानजनक कथन “जानबूझकर” या “द्वेषपूर्ण” इरादा सिद्ध न होने के कारण यह धारा भी नहीं टिकती।

इस प्रकार विधिक दृष्टि से देखा जाए तो उक्त कथन को धार्मिक अपमान का अपराध नहीं माना जा सकता।

🔹 न्यायिक भाषा बनाम सामाजिक व्याख्या

न्यायिक भाषा का स्वरूप सामान्य भाषण से भिन्न होता है।
कभी-कभी व्यंग्य या विवेचना का भाव “अदालती शैली” में होता है,
परंतु सोशल मीडिया पर वही वाक्य “धार्मिक अपमान” के रूप में वायरल हो सकता है।

यहां भी वही हुआ —
जस्टिस गवई की टिप्पणी, जो मूलतः याचिका की अनुपयुक्तता को दर्शाने के लिए कही गई थी, उसे मीडिया ने “देवता से पूछो” के रूप में प्रस्तुत कर दिया।

बाद में मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट कहा —

मैं सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करता हूँ। मेरी बातों को गलत अर्थ में लिया गया।”

🔹 भारत जैसे बहुधर्मी देश में न्यायपालिका को एक ओर धर्मनिरपेक्षता (Secularism) का पालन करना है,
और दूसरी ओर आस्था व परंपरा की मर्यादा भी निभानी है।

"धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म-विरोध नहीं,
बल्कि सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान है।"

अतः न्यायिक टिप्पणी में यदि असावधानी से धार्मिक भावना आहत होती है, तो उचित होगा कि न्यायपालिका संवेदनशील संवाद के माध्यम से विश्वास बहाल करे —

जिसका उदाहरण स्वयं जस्टिस गवई ने अपने स्पष्टीकरण से दिया।

🔹पूरे प्रकरण से स्पष्ट होता है कि —

न्यायिक मंच पर कही गई कोई टिप्पणी कानूनी अपराध नहीं, जब तक उसका उद्देश्य धार्मिक घृणा फैलाना न हो;
BNS की धाराएँ (295, 296, 297) तभी लागू होती हैं जब mens rea अर्थात “जानबूझकर अपमान” सिद्ध हो;
न्यायाधीश अपने न्यायिक कार्यों के लिए Judicial Immunity से संरक्षित रहते हैं;

और अंततः, संवेदनशील विषयों पर संवाद की भाषा जितनी मर्यादित होगी, लोकतंत्र उतना मजबूत रहेगा।

🔹अंततः 
धर्म और न्याय दोनों की प्रतिष्ठा मर्यादा में निहित है। जहाँ न्यायालय की वाणी न्याय के लिए समर्पित हो, वहाँ समाज को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि —

"संविधान की रक्षा और धर्म की मर्यादा — दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि भारतीय न्याय-परंपरा के दो पूरक स्तंभ हैं।"

✍️ अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर
(विधिक विश्लेषक एवं स्तंभकार)

2 Responses so far.

  1. Anonymous says:

    Correct ✅

 
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