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से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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उन भारतीय कानूनों की सूची (धारा-पाठ, व्याख्या) जिनमें “दोनो — पीड़ित और देने/लें वाले — दोनों” दायित्व/अपराध में पड़ सकते हैं — साथ में विलंबित शिकायत (4–5 वर्ष बाद) पर वैधानिक व न्यायिक दृष्टि

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समाज में कुछ अपराधों की प्रकृति ऐसी है कि एक ही कृत्य में दोनों पक्ष (जिन्होंने वस्तु/धन दिया और जिन्होनें लिया या माँगा) कानूनी रूप से दंडनीय ठहर सकते हैं। इस लेख में उन केंद्रीय क़ानूनों व धारणाओं की सूची, संबंधित धाराओं की संक्षिप्त व्याख्या और साक्ष्य- व न्यायिक मापदण्ड दिए गए हैं। बाद में यह विश्लेषण किया गया है कि किसी अपराध के 4–5 साल बाद यदि प्राथमिकी/शिकायत दर्ज हो, तो न्यायालय किस तरह से विलंब की वैधता व 'प्लांटेड' शिकायत का परीक्षण करता है। नीचे दिए गए संदर्भ आधिकारिक स्रोतों एवं सुप्रीम कोर्ट व उच्च न्यायालयों की प्रचलित पद्धतियों पर आधारित हैं।


प्रमुख अधिनियम/धाराएँ — जहाँ “देना” और “लेना” दोनों अपराध बन सकते हैं

A. दहेज़ (Dowry) — The Dowry Prohibition Act, 1961

  • धारा 2 (परिभाषा) — “दहेज़” की परिभाषा।

  • धारा 3दहेज़ देना/लेना/उकसाना — यदि कोई भी व्यक्ति शादी के सिलसिले में दहेज़ देता या लेता है या देने/लेने में मदद करता है, तो दण्डनीय है। सज़ा न्यूनतम पाँच वर्ष तक और जुर्माना (न्यूनतम ₹15,000 या दहेज़ की कीमत)। इस अधिनियम के तहत ‘देने वाला’ भी अपराधी माना जाता है। उदाहरण: माता-पिता/रिश्तेदार जो दहेज़ का भुगतान करते हैं, वहीं पति/ससुराल जो लेते हैं — दोनों पर कार्रवाई संभव है। Indian Kanoon

महत्वपूर्ण प्रैक्टिकल बिंदु / साक्ष्य के प्रकार

  • बैंक लेन-देन, रसीदें, उपहारों की सूची, गवाहियाँ, व्हाट्सऐप/ई-मेल मेसेजेस, शादी-समय के नोट्स आदि दहेज़ ‘देने’ के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। धारा 8A (बोझ/बोझ का उल्टा उत्तरदायित्व) के कारण अभियुक्त को यह प्रमाणित करना पड़ सकता है कि वे दिए गए सामान केवल ‘उपहार’ थे, न कि दहेज़। न्यायालय ने कहा है कि धारा 113-B (Evidentiary presumption for dowry death) स्वचालित नहीं है; दावे को साक्ष्य से पुष्ट करना आवश्यक है। ezyLegal+1


B. रिश्वत/भ्रष्टाचार (Bribery) — Prevention of Corruption Act, 1988 (PCA) — संशोधित

  • धारा 7, 8 (और 9 आदि) — मूलतः PCA ने 'प्रशासनिक/जनसेवक द्वारा रिश्वत लेना' को दंडनीय बनाया। 2018 के संशोधन व प्रावधानों ने भ्रष्टाचार देने/देने वाले (bribe-giver) व कॉरपोरेट/कम्पनियों के द्वारा रिश्वत देना/प्रयास करना भी सीधे दंडनीय कर दिया। धारा 8 (Offence relating to bribing of a public servant) व धारा 9 (कम्पनियों के लिये) जैसे प्रावधानों के माध्यम से ‘देने’ और ‘लेने’ दोनों पर आपराधिक दायित्व लगाया गया है। India Code+1

विशेष-नोट:

  • PCA की §24 यह व्यवस्था रखती है कि यदि कोई ‘भ्रिस्टदाता’ (bribe-giver) सरकारी/अन्य मुक़दमे में बयान देता है तो उसे (कुछ शर्तों में) अभियोजन से सुरक्षा मिल सकती है; परन्तु यह ‘अमन’ हर परिस्थिति में नहीं स्वतः लागू नहीं होता और न्यायिक विवेचना पर निर्भर है। West Bengal Agricultural Commodity Board+1

साक्ष्य-विवेचनात्मक बिंदु

  • बैंक लेन-देनों, कैश ट्रांज़ैक्शन्स, फोन रिकॉर्ड, वणिज्यिक दस्तावेज़, तीसरे पक्ष के प्रमाण (forensic audit reports) व साक्ष्य-वहन (circumstantial evidence) से रिश्वत साबित की जा सकती है; सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कभी-कभी परोक्ष/परिस्थितिजन्य प्रमाणों पर भी दोष सिद्ध किया जा सकता है। Supreme Court Observer+1


C. चुनावी रिश्वत (Election Bribery) — IPC: Section 171B (और सम्बंधित प्रावधान)

  • §171B तथा चुनावी दंडनीय प्रावधानों में निश्चित रूप से देनहार (bribe-giver) व लेने-वाला दोनों को दंडनीय बनाये गया है। यहाँ भी साधारणतः दायित्व दोनों पर समान होता है। AdvocateKhoj


D. अभद्र/क्रिमिनल सहयोग व ठगी में 'संलिप्त' पक्ष (Conspiracy / Abetment) — IPC §§120A/120B, 107–120 (Abetment)

  • यदि किसी अपराध की योजना में पीड़ित पक्ष स्वयं शामिल रहा (उदाहरण: जालसाजी में मिलकर धन निकासी), तो उस व्यक्ति के विरुद्ध भी सजा की कार्यवाही सम्भव है — अवश्य, यह तथ्यों पर निर्भर करता है। षड्यंत्र/सहयोग (conspiracy/abetment) में सहमिल हर व्यक्ति अपराधी माना जा सकता है। Metalegal Advocates


उदाहरणात्मक प्रश्न जो अक्सर उठते हैं - 

  1. "देने वाले ने कैसे दिये — नकद, चेक, बैंक ट्रांसफर, उपहार?"
    — यह निर्णायक है; बैंक स्टेटमेंट, गिफ्ट-वाउचर, रसीदें, तृतीय-पक्ष गवाह (वेंडर/दुकानदार) और डिजिटल संवाद निर्णायक होते हैं। न्यायालय ने बार-बार कहा है कि बैंक ट्रांज़ैक्शन मजबूत प्रमाण होते हैं पर अकेले भी नहीं; समग्र साक्ष्य-पैटर्न देखा जाता है। Law Web+1

  2. "क्या देने वाला आर्थिक रूप से सक्षम था?"
    — क्रिमिनल दायित्व इस पर निर्भर नहीं कि देना उसकी क्षमता में था या नहीं; परन्तु सजा का निर्धारण व 'क्या यह दहेज़/रिश्वत वगैरह था' — यह न्यायालय साक्ष्यों (आय-कर रिकॉर्ड, बैंक स्टेटमेंट, संपत्ति संबंधी दस्तावेज़) के आधार पर मूल्यांकन करेगा। इसलिए सरकारी/आय-कर रिकॉर्ड प्रासंगिक प्रमाण बनते हैं। IBC Law

  3. "क्या दिये गए धन/सामान की आमद-नोट सरकारी रिकॉर्ड में दिखनी चाहिए?"
    — अगर उद्देश/प्रवाह वैधानिक दाखिलों (tax returns, Form 26AS, company books, payroll) में है तो दस्तावेज़ी समर्थन मजबूत होता है; पर गैर-दाखिले (cash/हवाला/बेनामी) लेन-देन भी सावधानियों व अन्य साक्ष्यों से सिद्ध किए जा सकते हैं — पर यह कठिन है। फॉरेंसिक ऑडिट व बैंक सबूत अधिक प्रभावी होते हैं। ICSI+1


कायदे का नियम, न्यायालय की प्रवृत्ति व परीक्षण-मानक

(A) वैधानिक निर्देश — FIR रजिस्ट्रेशन (Section 154 CrPC) और Lalita Kumari निहित सिद्धांत

  • Lalita Kumari v. Govt. of U.P. (Supreme Court) ने निर्देश दिए कि यदि सूचना में कॉग्नाइज़ेबल अपराध का संकेत है तो पुलिस FIR दर्ज करने से इंकार नहीं कर सकती; सामान्यत: prelim inquiry गैर-आवश्यक है। पुलिस का यह अभ्येक दायित्व है। इसलिए सूचना मिलने पर प्रारम्भिक दर्ज करना ही आदर्श है। Indian Kanoon

(B) क्या 4–5 साल बाद दर्ज शिकायत 'प्लांटेड' मानी जाएगी? — न्यायालय का दृष्टिकोण

  • सुप्रीम कोर्ट व उच्च न्यायालयों ने बार-बार कहा है कि विलंब स्वयं में आपराधिक मुक़दमे को रद्द करने/quash करने का स्वत: आधार नहीं है। विलंब के कारण को न्यायालय देखता है: (i) भय/धमकी/निरोध (ii) पैठ/समझौता/बात-बात पर न सोच कर स्थगन (iii) शिकायत-कर्त्ता ने आश्वासन के चलते देरी की — ऐसे तर्क वैध हो सकते हैं। यदि देरी का पीड़ित द्वारा संतोषजनक और तार्किक स्पष्टीकरण है (उदा. सुरक्षा भय, प्रत्यक्ष निरीक्षण की असमर्थता, पक्षों के दबाव), तो देरी को कारण मानकर मुक़दमे को ख़ारिज नहीं किया जाता। latestlaws.com+1

(C) न्यायालय किन परिस्थिति में शिकायत को 'फ्रिवोलस/मैलिशियस' मान कर रद्द करता है?

  1. स्पष्टतया वैमनस्य/नियत-दोष (mala fide) का संकेत — जब तथ्य बताते हैं कि पिपुल/पक्ष ने कार्रवाई बदले/मुक़ाबले/दबाव में की।

  2. सबूतों की असंगति और तथ्यात्मक विरोधाभास — देरी और अन्य सूचनाओं से लगता हो कि मामला रचा-बसा है।

  3. जब आपराधिक रंग केवल सिविल विवाद का रूप हो — और कोई 'overwhelming element of criminality' न दिखे। ऐसी परिस्थितियों में कोर्ट quash करने का रास्ता अपनाता है। परंतु सुनिशित नियम यह है कि सुधी-तरह जाँच के बाद ही (charge-sheet बनने/गम्भीरता पर निर्भर) निर्णय दिया जाना चाहिए; केवल देरी पर स्वतः quash नहीं। CaseMine+1


जब 'दोनों पक्ष दोषी' या 'विलंब' मुद्दा उठे:

जब आप अभियोजन पक्ष हैं (शिकायतकर्ता/राज्य):

  1. देन/लेन की प्रकृति दर्शाने वाले बैंक/लेन-देन दस्तावेज जुटाएँ। Law Web

  2. डिजिटल संवाद (मैसेज/व्हाट्सऐप/ईमेल) और गवाह बयान सुरक्षित कर लें। lawrato.com

  3. यदि देनहारी ने बाद में बयान बदला है, तो प्रारम्भिक इच्छाअभिलेख/रिकार्ड का उपयोग करें (evidence of prior statement)। Supreme Court Observer

  4. विलंब की वैधता बताने के लिए तात्कालिक भय-दस्तावेज़/लेख/नोट या प्रत्यक्ष कारण संलग्न करें। latestlaws.com

जब आप बचाव (अभियुक्त) पक्ष हैं:

  1. दिखाएँ कि नामित 'देन' केवल समारोह-उपहार थे (गिफ्ट-लिस्ट, विक्रेता रसीद)। §8A का प्रयोग संभावित है। ezyLegal

  2. आय-कर, बैंक स्टेटमेंट से ‘आर्थिक क्षमता’ व प्राप्ति-प्रमाण दिखाएँ। IBC Law

  3. विलंब पर तर्क बनाइये — कब-क्यों शिकायत हुई (settlement attempts, threats, surveillance आदि)। latestlaws.com


न्यायिक बिंदु और सावधानियाँ:

  1. कानून का उद्देश्य — दहेज़, रिश्वत जैसे अपराधों का उद्देश्य समाज में गहरे चोट पहुँचाने वाले व्यवहार को नियंत्रित करना है। इसलिए विधि-व्यवस्था दोनों पक्षों को अपराधी ठहराकर ऐसे व्यवहार को रोकती है; पर साक्ष्य-मानदण्ड कठोर हैं। Indian Kanoon+1

  2. प्रेज़म्प्शन vs. सबूत — कुछ धाराओं (उदा. धारा 113-B Evidence Act) के तहत तर्कसंगत अनुमान होते हैं, पर सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि ऐसे अनुमान स्वचालित नहीं होते; उन्हें समुचित साक्ष्य-पात्रता से ही लागू किया जाना चाहिए। इसलिए अभियोजन को सबूत जुटाने में सतर्क रहना होगा। Lawyer News

  3. विलंब का उपचार — कोर्ट अब यह नहीं मानता कि देरी मात्र से शिकायत को खारिज किया जा सकता है। न्यायालय ‘कुल मिला कर तथ्य-आधार’ पर देखता है। यदि देरी के कारण ठोस व तार्किक हैं, मुक़दमा चलेगा; अन्यथा, विशेष परिस्थितियों में quash संभव है। Court Book+1


संक्षेप — नीतिगत और व्यावहारिक सुझाव:

  1. कानूनी समीकरण सरल नहीं: दहेज़/रिश्वत जैसी व्यवस्थाएँ दोनों पक्षों को दंडनीय ठहराती हैं। इसलिए अभियोजन व बचाव दोनों पक्षों को दस्तावेज़ी और डिजिटल साक्ष्य जुटाने में तत्पर रहना चाहिए। Indian Kanoon+1

  2. विलंब का परीक्षण तर्कसंगत होगा: 4–5 साल बाद की शिकायत को स्वतः 'प्लांटेड' मानना अनुचित है; पर देरी-कारण की जाँच अनिवार्य है और यदि मॉलिशियस एवं साक्ष्य-विरोधाभासी संकेत मिलते हैं तो कोर्ट मुक़दमा quash कर सकती है। Court Book+1

  3. प्रायोगिक सलाह: अभियोजन को शुरूआती चरण में बैंक/IT/forensic दस्तावेज तथा तार्किक स्पष्टीकरण साथ रखें। बचाव पक्ष को प्रारम्भिक रसीदें, गवाह, और वैकल्पिक व्याख्याएँ (उपहार, परंपरा, संधि) प्रभावी रूप से प्रस्तुत करें। Law Web+1



संदर्भ: 
  • The Dowry Prohibition Act, 1961 — आधिकारिक पाठ (IndiaCode). India Code
  • Indian Penal Code, Section 498A (Cruelty by husband/relatives) — IndiaCode / Indiacourts summaries. Indian Kanoon
  • Prevention of Corruption Act, 1988 (और 2018 संशोधन पर सार) — आधिकारिक संशोधित प्रतिलेख व विशेषज्ञ लेख। India Code+1
  • Lalita Kumari v. Govt. of U.P. — FIR रजिस्ट्रेशन पर सुप्रीम-कोर्ट का निर्णय व मार्गनिर्देश। Indian Kanoon
  • सुप्रीम कोर्ट की ताजातरीन पद्धति — ‘विलंब को केवल आधार नहीं माना जा सकता’ तथा धारा 113-B के औचित्य पर निर्णय-रायें। Court Book+1

लेखक

✍️ अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर
(विधिक विश्लेषक एवं स्तंभकार)
 
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