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वोट-बैंक की राजनीति में दिव्यांगों की उपेक्षा: हकीकत या बहाना?

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भारतीय राजनीति में सामाजिक कल्याण योजनाएँ हमेशा ही प्रमुख विषय रही हैं — विशेष रूप से चुनावों के समय। 2023 के Bharatiya Janata Party (भाजपा) के मध्य प्रदेश संकल्प-पत्र ने महिलाओं, किसानों, स्वरोजगार-उद्यमियों एवं असंगठित श्रमिकों को केंद्र में रखा। लेकिन जब हम उसी दस्तावेज़ को दिव्यांग, निराश्रित व सबसे अधिक जरूरतमंद नागरिकों के संदर्भ में पढ़ते हैं, तब एक गहरी खाई दिखती है — वहाँ जहाँ वादा था, वहाँ क्रिया नहीं दिखती; जहाँ क्रिया है वहाँ कवरेज अधूरी।
इस लेख में हम यह विश्लेषण करेंगे कि कैसे सामाजिक-लेखक एवं शोध-पत्र इस विषय पर बात कर रहे हैं, और क्यों लगता है कि योजनाएँ जनहित से ऊपर “वोट-बैंक हित” की दिशा में संचालित हो रही हैं।

शोध-संदर्भ और सामाजिक परिदृश्य:

विद्वानों व सामाजिक लेखक-समीक्षकों ने बार-बार यह इंगित किया है कि दिव्यांग नागरिकों को संबंधित नीतियाँ उपलब्ध तो हैं, लेकिन क्रियान्वयन और पहुँच में बहुत बड़ी बाधाएँ हैं। उदाहरण के लिए, अनिता घाई की संपादकीय समीक्षा “Human Security, Social Cohesion, and Disability” में यह कहा गया है कि ‘विकलांग लोग समान रूप से नहीं माने जाते; वैश्वीकरण-प्रवृत्तियों की छाया में उनका एक सामाजिक सुरक्षा-मानवाधिकार दृष्टि से पक्ष नहीं बन पाता’।
इसी तरह, एक समीक्षा-पत्र “Evaluating Social Security Measures for Persons with Disabilities in India: Challenges and Policy Recommendations” संकेत देता है कि भारत में दिव्यांगों के लिए मूलभूत पेंशन, स्वास्थ्य सहायता और सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ मौजूद हैं, लेकिन “जटिल प्रक्रियाएँ, सीमित बजट और जागरूकता की कमी” उन्हें लाभार्थी तक पहुँचने से रोकती हैं।
इन विश्लेषणों से एक बात स्पष्ट होती है — नीति-दस्तावेज बने-बनाए हैं, परिंद्री रूप से लागू करने में कमी है, विशेष रूप से उन नागरिकों के लिए जिनका राजनीतिक दृष्टिकोण से वोट-बैंक में महत्व कम माना जाता है।

संकल्प-पत्र व वादों की वास्तविकता:

मध्य प्रदेश भाजपा 2023 के संकल्प-पत्र में पृष्ट 12 पर स्पष्ट घोषणा थी:

“₹1,500 की मासिक पेंशन — वरिष्ठ एवं दिव्यांग नागरिकों को लाभ।”
हालांकि यह भी ऊंट के मुह मे जीरा बराबर ही है लेकिन फिर भी यह घोषणा उम्मीद जगाती है कि सरकार ने सबसे कमजोर वर्गों को आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा की दिशा में प्राथमिकता दी है। परंतु क्रियान्वयन की स्थिति कुछ इस प्रकार दिखती है:

अद्यतन सरकारी स्रोतों के अनुसार, दिव्यांग पेंशन आज भी मध्य प्रदेश में ₹600-₹1,000 मासिक की सीमा में है; ₹1,500 की दर मई 2025 तक लागू नहीं पाई गई।

शोध-साक्ष्यों के अनुसार (उदाहरण के लिए वित्तीय सहायता पाने वालों मे वास्तविक जरूरतमंद दिव्यांगों की हिस्सेदारी कम रही) कि पहुँच की समस्या और लाभ वितरण की क्रियात्मक खामियाँ बनी रहीं।

इसके विपरीत, महिलाओं के लिए मासिक आर्थिक सहायता एवं किसानों के लिए सम्मान निधि जैसी योजनाओं को चुनावी समय में प्रमुखता से प्रचारित किया गया, जिससे यह प्रतीत होता है कि जहाँ वोट-संख्या अधिक थी, वहाँ क्रियान्वयन तेज था।
वोट बैंक बनाम जरूरतमंद:

यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या सरकार वास्तव में जरूरतमंदों को प्राथमिकता दे रही है या केवल उन वर्गों को जिसे राजनीतिक दृष्टि से उपयोगी माना जाता है? मैं इस विषय पर तीन बिंदुओं से चिंतन कर रहा हूँ:

वोट-संख्या और सामाजिक सहायता:
महिलाओं (लाड़ली बहन योजना) तथा किसानों को योजनाएँ दिए जाना विश्लेषित है कि वहाँ संख्या-बैंक मजबूत है, इसलिए सरकार ने उसे उपयुक्त रूप से समयबद्ध व स्पष्ट घोषणा के साथ उठाया। परन्तु दिव्यांग/निर्जीव-लाभार्थियों का पूरा लाभ उठना नहीं दिखता — शायद क्योंकि यह वर्ग राजनीतिक दृष्टि से बड़ी संख्या में नहीं है। यदि योजनाएँ वोट-सुझाव पर आधारित हों, तो यह लोकतंत्र व सामाजिक न्याय दोनों के लिए चिन्ताजनक संकेत है।

निर्भरकर्ता वोट बैंक की रणनीति:
एक जोखिम यह है कि सरकार ऐसे लाभ योजनाएं चलाती है जिनसे लाभार्थी “निर्भर” हो जाएँ — स्थायी स्वरूप में आदर्श नागरिक नहीं, बल्कि लाभ के लिए इंतजार करने वाला वोट बैंक बन जाएँ। अगर दिव्यांगों को लाभ नहीं मिलता तथा योजनाएँ सिर्फ घोषणाओं तक सीमित रह जाएँ, तो यह सामाजिक-न्याय दृष्टि से यह संकेत देती है कि “जरूरतमंद को छोड़, मतदान-उपयुक्त को फायदा” की नीति चल रही है।

मूलभूत पहुँच और क्रियान्वयन का अभाव:
शोध बताते हैं कि योजनाओं का लाभ तभी संभव होता है जब पहुँच (पेंशन, स्वास्थ्य, शिक्षा) सुलभ हो, सूचना व जागरूकता मौजूद हो, और वितरण तंत्र सुचारू हो। लेकिन भारत में 53% से अधिक असंगठित श्रमिक समूह के पास सामाजिक सुरक्षा ही नहीं है। अगर ऐसे में दिव्यांगों को प्राथमिकता न मिले, तो राजनीतिक घोषणाएँ सिर्फ “प्रतीकात्मक” बन जाती हैं — उनका वास्तविक लाभ नहीं दिखता।

सुझाव — सामाजिक न्याय के लिए मजबूती:
यदि हम वास्तव में “सबका साथ, सबका विकास” का मूल मंत्र अपनाना चाहते हैं, तो यह आवश्यक है कि:
  • घोषित प्रतिमानों जैसे ₹1,500 की पेंशन को बढ़ाकर कम से कम 10,000 किया जाए एवं इसे समयबद्ध रूप से लागू हों और सार्वजनिक-पारदर्शी रिपोर्टिंग हो।
  • लाभार्थी वर्गों की संख्या-सूची सार्वजनिक हो और लाभ वितरण का आकलन स्वतंत्र स्रोतों द्वारा किया जाए।
  • सामाजिक योजनाओं का प्रचार वोट-संख्या आधारित न हो, बल्कि जरूरत-आधारित हो — यानी सबसे पीछे खड़े नागरिकों को प्राथमिकता मिले।
  • लाभ वितरण तंत्र (पंजीकरण-प्रक्रिया, पहचान-कार्ड, बैंक खाते, सहायता का ट्रैकिंग) सरल व समावेशी बनें, ताकि दिव्यांग-निराश्रित लाभ से वंचित न रहें।
  • सामाजिक-लेखन व मीडिया द्वारा निरंतर मॉनिटरिंग हो — जैसे शोधों में सुझाव दिया गया है कि दिव्यांगों को “टोकन” के रूप में नहीं, बल्कि वास्तविक हिस्सेदारी व अधिकार-आधारित दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

अंततः

राजनीति में योजनाओं का महत्व रहेगा — पर यह सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी है कि योजनाएँ केवल चार्ट-लाइन में न रहें, बल्कि वास्तविक जीवन में लागू हों। दिव्यांग, निराश्रित और असहाय नागरिक इसी देश की धड़कन हैं — अगर उनके लिए सिर्फ घोषणाएँ हों और क्रियान्वयन न हो, तो यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के प्रति उपेक्षा है।
हमें चुनावी घोषणाओं की चमक से आगे-आगे देखना होगा — उनकी क्रियान्वयन की चमक को भी देखने की जरूरत है। तभी हम कह सकते हैं कि “वोट बैंक नहीं, मानव बैंक” हमारा लक्ष्य है।



लेखक

✍️ अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर
(विधिक विश्लेषक एवं स्तंभकार)

 
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